- माया की धूल,पंक में
- मैने खूब गुलाटी मारी
- लेकिन जब भरी धूल
- आँख,मुख में भारी
- तब जा के सुधि आई
- मुझको राम तुम्हारी।
- हर कोई हँसता था तब मुझ पर
- जैसे वो हो संत बड़ा ही ज्ञानी
- लेकिन मेरी विपदा को दूर कर सके
- ऐसा नहीं मिला कोई मुझको प्राणी।
- मैं अपने ही क्रंदन से त्रस्त पड़ा था
- जग को घाव दिखा नहीं सकता था
- मजबूर,विवश मैं लाचार बड़ा था
- सच तो ये कि तुझपे भी विश्वास नहीं था।
- पर मरता-पड़ता,आखिर क्या न करता
- जैसे- तैसे,झूठ-मूठ को नाम तेरा था रटता
- वैसे तो मैं काम को ही नित था ध्याता
- लेकिन कृपा से तेरी वो राम नाम बन जाता।
- अब जब तूने अपने अंगराग से
- मुख मेरा कुछ धुलवाया है
- सच कहता हूँ इस जीवन का
- असल स्वरुप दिख पाया है।
I am an Astrologer,Amateur Singer,Poet n Writer. Interests are Spirituality, Meditation,Classical Music and Hindi Literature.
Sunday, 7 September 2014
215 - माया की धूल,पंक में
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bahoot khoob !
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