Monday, 29 September 2014

232 - तुम्हारा  दिव्य रूप



तुम्हारा  दिव्य रूप  देखने की
प्रभु साध है मेरी बहुत पुरानी।
मंत्रमुग्ध जिस पर सृष्टि सारी
वही सगुन रूप की चाह मेरी।
नाम से ही जब है धड़कन धड़कती
फिर होगे सम्मुख तो क्या बात होगी।
रोम-रोम खिलता है आँख बहती
जाने क़ैसी प्रेम ने काया पलट दी।
शिव उर धाम बसती जो बाल छवि
राम उसी रूप की लौ मुझको लगी।
अब तो यही बस एक चाह रह गयी
शीघ्र दर्शन दो अथवा बहुत देर होगी।

Sunday, 28 September 2014

231 - स्वच्छ भारत का अभियान








करवां चल पड़ा है देखो स्वच्छ भारत का अभियान लेकर।
नयी चेतना,नए युग के निर्माण का जय हो संकल्प लेकर।।

राष्ट्रपिता के जन्मदिन पर उनका, हम सब शुभ आशीष लेकर।
श्रीगणेश करें अभियान का,उत्साह-उल्लास से लबरेज़ होकर।।

शौचालय की व्यवस्था कर सकें सबके लिए दूरस्थ गाँव तक।
मल ढोने की प्रथा अब न दिखे कहीं,किसी एक भी गॉव तक।।

नदी,सरोवर जो भी हमको मुक्त-हस्त से सदा रहे हैं जल देते।
उनको नहीं करेंगे गन्दा,आओ मिलकर ये प्रण हम सब हैं लेते।।

गली-मौहल्ले,चौबारे भी जहाँ-जहाँ हैं सब तेरे-मेरे,अपने तो हैं।
घर को जैसे चमचम स्वच्छ करें,इनको हम क्यों नहीं रखते हैं।।

शत्रु ,मित्र जो भी आए देश में अपने, विश्व के किसी भूभाग से।
खिल उठे फिर तन-मन उनका,देख रमणीय यहाँ की ठाँव से।। 

Thursday, 25 September 2014

230 - योगदान विकास में




चिरप्रतीक्षित नए युग का श्री गणेश हो गया।
मंगलयान उड़ान से राष्ट्र मंगलमय हो गया।।

उम्मीद की लौ जो थी कभी बहुत हलकी रही।
मद्धम से बढ़कर अब विशाल आकार ले रही।।

हर तरफ गूंजने लगा है जज्बा,फिर देशभक्ति का।
प्राण फूँकने लगा है चारों तरफ नेतृत्व नरेंद्र का।।

जमीनी स्तर से लेकर आसमाँ की बुलन्दियों तक।
संजीदा दिखता है इरादा राष्ट्र का नई मंजिलों तक।।

"मेक इन इंडिया" की शुरुआत बनेगी प्रगति मन्त्र।
सोने की चिड़िया फिर होगा अपना ये लोकतंत्र।।

हम भी कब तलाक हाथ बांधे रहें इस नए दौर में।
आइए जितना हो संभव करें योगदान विकास में।।

Tuesday, 23 September 2014

228 - जीन्स और हमारे पूर्वज



आश्विन मास का कृष्ण पक्ष जब-जब हर नववर्ष में  आता।
श्राद्ध क्रिया से पितरों का सुमिरन करलें ,ऐसी याद दिलाता।।

हम रहे हैं जिनके वंशज,कुल-गोत्र से सात पुश्त तक जुड़े हुए। 
उनके आशीष,तेज़पुंज से सप्तलोक में "भूलोक "तक पहुँच गए।।

मात-पिता के पितरों का,भाव से करें स्मरण यदि हम। 
प्रभू भी करें कृपादान,सदा रहे खुशहाल,तृप्त तभी हम।।

चन्द्र चमकता है गगन में जैसे,अपनी 28*नक्षत्रमाला के साथ। 
वैसे अपने पिता भी भीतर रखते,28 कला जीन्स का सदा ही साथ।।

इन्हीं 28 कलायुक्त पिंड के 21अंशों से फिर पिता है निर्मित करता। 
अपनी भावी संतति के जीन्स में तब ऐसे योगदान उसका है रहता।।

पौत्र हेतु फिर उन्हीं 21 अंशों में से जो दिए अपनी संतति को। 
15 अंश दिलवाता है अपने ही पुत्र से भावी सुकुमार पौत्र को।।

वंशवृद्धि के इसी क्रम का फिर चलता है ये सिलसिला आगे से आगे। 
10 कला के रूप में फिर मिलने से वो प्रपोत्र में बढ़ता आगे से आगे।।

उसकी फिर ये शेष 6 कलाएं वृद्ध प्रपोत्र के निर्माण में काम हैं आती। 
जिनमें से फिर 3 कलाएं अतिवृद्ध प्रपोत्र को हैं जा कर के  मिलती।।

चलते-चलते फिर इस क्रम से आगे एक कला वो अपनी है देता। 
वृद्धातिवृद्द प्रपोत्र जिसमें अपनी 7 पुश्तो के हिसाब को है रखता।।

इस तरह प्राचीन विज्ञान श्राद्ध का भाव है सूक्ष्म बड़ा अलबेला अपना।
7 पीढ़ी से संबंधों के तार जोड़-जोड़ जो करता है आया संवाद अपना।।

*27 नक्षत्रों में चन्द्रमा का संचरण होता है। वैसे मुहूर्त शास्त्र  में "अभिजीत " नाम का 28 वां  नक्षत्र मान्य है। 

Monday, 22 September 2014

227 - करुणानिधान






वात्सल्य से करुणानिधान तुम
जाने कितनों को हो उबार चुके।
पर जाने क्या बात है राम मेरे
मुझको तो जैसे बिसरा चुके।
जाने कब से बाट जोह रहा
कभी तो पथ प्रशस्त मिले।
तेरे कृपाधाम का मुझको
अब तो प्रमाण-पत्र मिले।
निश्चित ही निर्भीक,मगन हो
तब मैं गीत तुम्हारे गाऊँगा ।
भूल जगत के दुःख-दर्द ये सारे
नित चरणों में शीश झुकाऊँगा ।  

226 - साईं मेरे दिल के आँगन में




साईं मेरे दिल के आँगन में
आ कर तुम बस जाओ।
फूल बनो या शूल बनो
जो चाहो तुम हो जाओ।
फूल बनोगे तो बगिया मे
महक खूब महकेगी  तेरी।
शूल बनोगे यदि कही तो
माया जरा नहीं फटकेगी।
तीव्र गति से जीवन की गाडी
फिर मंजिल पर पहुंचेगी।
मैं भी खुश और तुम भी खुश
इस जीवन की सार्थकता होगी। 

Saturday, 20 September 2014

225 - नाथ देखि पद कमल तुम्हारे




नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे।
सो तुम जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी।  ६/५/१४


हे प्रभु श्री राम मेरे,देखे जो मैंने नलिन चरन आपके।
खिल उठे मन सरोवर में,नलिन दल अगनित सारे।
अब तो हर कामना करतलगत,हुई हर साधना पूर्ति।
आप से क्या छुपा है ज़रा भी,चरन रज रखिए ज़रा सी।
जन्म-जन्मों के पाप-ताप से,मुक्त करें इस जीव को भी। 

Friday, 19 September 2014

224 -संत सरल चित

संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु। बाल विनय सुनि करि कृपा राम चरण रति देहु। १/ ३ ख




हे सद्गुरु मेरे  साईंनाथ  सरकार
आप  सदा हैं निर्मल,सहृदय,उदार।

मैं तो बालक मूढ़मति अन्जान
कर दो कृपा अब हे दयानिधान।

वर्ना मैं तो रोते-रोते रह जाऊंगा
राम तुम्हारी प्रीत कहाँ पाऊँगा।

ये जीवन भी मेरा व्यर्थ चला जायेगा 
तेरे होते क्या उद्धार नहीं हो पायेगा।   

Thursday, 18 September 2014

225 - ग़ज़ल-39

भलमनसाहत का बेवज़ह मखौल उड़ाते क्यों हो
पीठ न थपथपाओ,मगर सरेआम चिढ़ाते क्यों हो। 

बहुत दूर तलक चलोगे तब मिलेगी मंजिल तुम्हें 
दो कदम में फकत ए दोस्त हौसला हारते क्यों हो। 

वो महबूब हो,दुश्मन हो या कोई भी हो तुम्हारा 
आपसी रिश्तों को भला बेवजह उलझाते क्यों हो। 

नफरत ही जो भरे दिलों में,प्यार न जानता हो 
भला "उस्ताद"  तुम उसे अपना बनाते क्यों हो। 

Wednesday, 17 September 2014

मेरा पहला काव्य संग्रह






राम जी की असीम  अनुकम्पा से आ रही नवरात्रियों में  "मानस  सुधा मंजरी"  और   "साईं कृपा याचना" इन  दो पुस्तकों का प्रकाशित रूप में सामने आने का सपना साकार  होने जा रहा है। फिलहाल आज थोड़ी चर्चा आपके साथ "साईं कृपा याचना "पर करने के लिए उत्सुक  हूँ।

पुस्तक को जो यह नाम दिया उसके पीछे इस पुस्तक में संगृहित अधिकांश रचनाओं में साईं से याचना, कारण बनी है।याचना में  यद्यपि  मैं/ मेरा शब्दों का भी प्रयोग हुआ है पर वो सम्रगता, सामूहिकता ही के भाव से है। यहाँ मुख्यतःयाचना यही है कि हमें जो मानवीय देह मिली है उसे हम सुकारथ कर ले जाएं तो हमारा जन्म लेना सफल हो जाए। "सोइ पावन सोइ सुभग सरीरा । जो तनु पाइ भजिअ रघुबीरा ।। 7/95/2"

दूसरी बात कि हम जब भयंकर दर्द में, पीड़ा में होते हैं तो बस चिल्लाते/ चीखते हैं। उस समय सुन्दर वाक्यों में अपने को अभिव्यक्त करने का धैर्य कहाँ होता है? हमारी बात चिकित्सक सुन ले, समझ ले और इतना नहीं तो कम से कम नजदीक या दूर से करुणापूर्ण दृष्टि से देख ही ले, यही हमारा ध्येय होता है। फिर वो संवेदनशील हुआ तो खुद ही हर जतन करेगा। फिर यहाँ तो बात साईं से निवेदन की है जो "करालं महाकाल कालं कृपालं" हैं। उससे कुछ छुपा नहीं है, वो हर पल सबसे करीब रहता है और हमारे उत्थान के लिए ही मानो अपना अस्तित्व रखता है। हाँ बस उसे कुछ नाटक की, मसखरी की आदत है इसलिए कभी सुनी - अनसुनी  करता है। पर ऐसा है क्या ? खैर अब जब वो करता है तो हम क्यों पीछे रहें ! हम तो उसका अंश ही हैं। वैसे भी आजकल के बच्चे बाप के कान काटते हैं सो कुछ ऐसा ही अभिनय करते हुए उलटी - सीधी, भाव - कुभाव से याचना उसको समर्पित है।


 अब जब ये उसके लिए है तो आपके लिए भी है। क्योंकि एक कान से दूसरे कान जाते - जाते शब्द साईं का ही तो स्वरूप बनाते हैं। इसलिए मेरे इस दर्द में आपकी भी आर्त पुकार है और आपको प्राप्त हो रहा राहत, सुकून का एहसास मेरा भी इलाज है। इसी भावना से यह संकलन सादर समर्पित है परमात्मा के विविध रूपों को।


दोनों ही पुस्तकों को प्रकाशित करने की इच्छा विशेष नहीं थी पर मेरे कार्यालय सहयोगी, अवधी के कवि श्रीराजेश शुक्ला छन्दक जी के बार-बार प्रेरित करने और उस हेतु साथ में भाग-दौड़ करने से यह  संभव हो सका। उनका मैं ह्रदय से आभारी हूँ। इसके साथ ही श्री नीरज  ने इस पुस्तक की कम्पोजिंग और टाइपिंग में सहयोग दिया और श्री राज भाई ने "साईं कृपा याचना" पुस्तक का मनोहारी कवर डिज़ायन करने में सहयोग दिया उनका भी आभार अभिव्यक्त करता हूँ। सुश्री पूर्विका (भतीजी) ने कई बार प्रूफ रीडिंग हेतु जो मेहनत की उसके लिए उसे मेरा स्नेह और आशीर्वाद। जय साईं राम। 


Tuesday, 16 September 2014

224 - पूर्ण प्रकाश




पूर्ण प्रकाश हुआ जीवन में
गुरु जब आया मन-आँगन में
दिशा-विदिशा आलोकित जग में
नव प्रभात खिला जगत में
शीतल,मंद समीर बही मन में
इन्द्रधनुष जब बना गगन में
पुलकित अंग,पोर-पोर सुधा में
गुरु की चरण धूलि के रंग में। 

Monday, 15 September 2014

223 - गुरु की महिमा





गुरु की महिमा गुरु ही जाने
कौन भला इस भेद को जाने।

जीवन सरिता बहती जाए
गुरु ही केवल पार लगाए।

संसय-भंवर सदा डराए
श्रद्धा,सबर बस गुरु दिलाए।

हाथ पकड़ कर गुरु चलाए
फिर काहे को मन घबराए।

Sunday, 14 September 2014

222 - तुम मुझे जो



तुम मुझे जो इतने प्यारे लगते हो
रूप से,व्यक्तित्व से मंत्रमुग्ध करते हो
हर पल,हर छन दृष्टि में बने रहते हो
कण-कण में अमृत रस सा झरते हो
साईं कहो ये कमाल कैसे कर लेते हो।


सच यही की तुम हर जगह रहते हो
हर रूप में छुपे कहीं तुम ही होते हो
फिर भला हमें कैसे भुला सकते हो
ये नाटक का अंत क्यों नहीं करते हो
मुझे भी दिव्य दृष्टि संपन्न करते हो।   

221 - हिंदी मेरे भारत की बिंदी



हिंदी मेरे भारत की बिंदी
हालत इसकी चिंदी-चिंदी।

राष्ट्रभाषा थी यह बनने वाली
अब तक इसका आसन खाली।

प्रेम,हज़ारी,नागर की तुलसी
पंत,प्रसाद के आँगन में हुलसी।

अमरबेल आ इससे जो लिपटी
एक दिवस में तभी तो सिमटी।

कायाकल्प कर सकती है हिंदी
तन-मन इसकी लगे जो हल्दी।

Friday, 12 September 2014

220 - "मानस सुधा मंजरी" मेरा पहला प्रकाशित संकलन

राम जी की असीम  अनुकम्पा से आ रही नवरात्रियों में  "मानस  सुधा मंजरी"  और   "साईं कृपा याचना" इन  दो पुस्तकों का प्रकाशित रूप में सामने आने का सपना साकार  होने जा रहा है। फिलहाल आज थोड़ी चर्चा आपके साथ "मानस सुधा मंजरी"पर करने के लिए उत्सुक  हूँ।

"मानस सुधा मंजरी" - 

यह पुस्तक एक संकलन है श्रीरामचरितमानस  के कुछ मार्मिक प्रसंगों को लेकर।जैसे शिव जी का पार्वती जी को राम तत्व का निरूपण ,केवट की भावुकता ,कोल -किरतो का राम जी के प्रति निश्छल प्रेम ,भारत जी का राम जी से मिलन ,भारत जी की राम चरण पादुका के प्रति निष्ठा  आदि-आदि अनेक मार्मिक प्रसंग। 

संकलन का उद्देश्य :

दरअसल आज कल के आपाधापी वाले युग में श्रीरामचरितमानस  का समग्र पाठ सबके भाग्य में नहीं दिखता क्योंकि इस हेतु  दो दिन  अवकाश और इत्मिनान की जरुरत होती है। यही कारण है की अब पहले से समग्र पाठ के लिए बुलावा घर-घर से आना बंद हो गया है। जबकि पहले लगभग  हर माह निमंत्रण मिलता ही था। आजकल सुन्दरकांड के द्वारा इसकी कुछ हद तक पूर्ति की जाने की कोशिश होती दिखती है। लेकिन जो श्रीरामचरितमानस के ह्रदय को छूने वाले अनेक प्रसंगों से जुड़ने की बात है वो हमसे वंचित रह जाती है। खासतौर से सामूहिक रूप में। सामूहिकता का अपना बल और विशेषता  है यह सब को ही ज्ञात है अत इस संस्करण को लाने की इच्छा मन में उपजी और राम जी की कृपा से वो साकार भी होने जा रही है। 

पुस्तक की प्रेरणा :

यह बात मेरे मन में पिथौरागढ़ के अपने शैक्षणिक प्रवास (इण्टर  के दो वर्ष ) के दौरान आई।  पिथौरागढ़ मेरा पैतृक निवास है सो अपनी दादी के साथ लखनऊ से यहाँ पढने आ गया था। वास्तव में लखनऊ छोड़ना व्यवाहरिक रूप में  मूर्खता लग सकती है  पर पूर्व में हाईस्कूल हेतु दो  वर्ष अल्मोड़ा बिता के आया था सो ये  विकल्प भी आजमाना बुरा नहीं था। ईश्वर की इच्छा प्रबल होती है सो कारण न होते भी कारण बन जाते हैं। मूलतः यह सब मेरे पढाई में बहुत कमजोर होने के कारण था। खैर यह एक लम्बा प्रसंग है। अस्तु,पिथौरागढ़ में  सदगुरू हेड़ाखान बाबा जी का साकार सा  ध्यानावस्थित संगमरमरी विग्रह स्थापित था जिसे मेरे दोनों चाचाजी द्वारा जयपुर से आदमकद रूप में  बनवा कर रखा गया था। बाबा जी महर्षि योगानंद जी(ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ ए योगी के रचियता) के दादा गुरु श्यामाचरण लाहड़ी जी के गुरु महावतार बाबा जी हैं। वर्तमान में भी इनके दर्शन हो जाते हैं ,मुझे भी दो बार ऐसे  सौभाग्य की अनुभूति  रही  है। अस्तु,बाबा जी के सम्मुख उनकी प्रीत प्राप्ति हेतु दिव्य  पाठ और रामचरितमानस के कुछ ६-७  ख़ास प्रसंगो का पाठ हर रविवार होता  था। १५-२० लोग शाम को घर में जुटते और पाठ लगभग एक घंटा चलता। मेरा संगीत के प्रति कुछ रुझान होने से तबला बजाने में मुझे चाचाजी  द्वारा लगा दिया था यद्यपि पहाड़ों में शाम के वक्त लोग  घूमने ,बाजार आदि हेतु जरूर निकलते हैं। उस पर  युवा तो अवश्य ही रहते हैं। चाचाजी के आग्रह रुपी आदेश को टालना पर मेरे लिए  उचित नहीं था  सो चाहते न चाहते  मैं  भजन -पाठ में सहभागी रहा। यहीं से इस पुस्तक की नीव पड़ी होगी ऐसा अनुमान है। 




हैड़ाखान बाबा जी बायें दाहिने उनके शिष्य  महेंद्र बाबा  

पाठ की अवधि :

मानस सुधा मंजरी का पाठ ५-६ घंटे में आसानी से हारमोनियम तबले पर हो जाएगा  अतः भक्त अपने रविवार या अवकाश का उपयोग  आसानी से कर सकेंगे  और कम से कम थोड़ा और व्यापक रूप में श्रीरामचरितमानस से जुड़ाव बनाये रख पाएंगे  ऐसा विश्वास है। अब श्रीरामचरितमानस जी की उपयोगिता कितनी है इस पर कुछ कहना तो सूरज को चिराग दिखाने जैसा है। सब इससे भली-भांति परचित हैं। 

        

  

Thursday, 11 September 2014

219 - ग़ज़ल -38

आजकल चारों तरफ सियासत है इस कदर हावी
दिखती है हर जुबान पर अब एक तल्खी सी हावी।

विश्वास करे तो किस पर करे ये कौम आदमी की
लगता हरेक पर रूह शैतान की हो गयी  हावी।

प्यार,अहसास,बंदगी,सलाहियत की बात सारी
कौन करे,सब पर लगता है जहालत हुई हावी।

"उस्ताद" को कहाँ परवाह शागिर्द के तालीम की
उस पर तो फ़िक्र बस अपनी फीस की है हावी।   

Wednesday, 10 September 2014

218 - राम तुम्हारी मुस्कान






राम तुम्हारी मुस्कान
सरल,सहज निर्मल
मुझको पास बुलाती है।
दुर्भाग्य मगर देखो मेरा
माया के नयन जाल में
 मृगतृष्णा भरमा कर मुझको
हर रोज बाण चलाती है।
मैं बिंध,रक्त देख
चिल्लाता,सकुचाता हूँ।
कुछ छन फिर तुम्हें देख
खुद को धीर बंधाता हूँ।
पर फिर भी न जाने क्यों ?कैसे?
हर बार तुम्हारे कृपा रूप से
खुद ही दूरी बढ़ा लेने से
अमृत से वंचित रह जाता हूँ।
मायाजाल मैं फँस कर खुद ही
तुम पर दोष लगाता हूँ।  

Tuesday, 9 September 2014

217 - ग़ज़ल 37



क्या बात है तुझमे ऐसी  यार मेरे 
मैं तो भूलूँ पर न भूलें ख्वाब मेरे। 

जर्रा-जर्रा तेरी खुश्बू है पास मेरे 
दूर कहाँ तू तो है हर वक्त पास मेरे। 

फूल तेरे न जंचते हों चाहे शूल मेरे 
हर हालत बने रहना तू साथ मेरे। 

सुबह-शाम करता हूँ यही दुआ तुझसे 
दिखा दे  नूर अपना ओ "उस्ताद"मेरे।  

Monday, 8 September 2014

216 - भक्ति का वरदान दे दो





  • मैं तो सोचता था प्रभु 
  • मांगू तुम्हारी भक्ति 
  • मगर मेरे मन में तो 
  • गहरे छुपी हुई थी
  • कामनाएं अनगनित 
  • सो तुम्हारी भक्ति जो 
  • खिलती निर्मल वाटिका में 
  • कैसे बसती मेरे ह्रदय में 
  • इसलिए ही तो अब तुमसे 
  • करता हूँ मैं प्रार्थना 
  • मन में बसती कामना को 
  • जड़मूल से उखाड़ दो 
  • मुझे अपना बना कर 
  • भक्ति का वरदान दे दो। 

Sunday, 7 September 2014

215 - माया की धूल,पंक में












  • माया की धूल,पंक में 
  • मैने खूब गुलाटी मारी 
  • लेकिन जब भरी धूल 
  • आँख,मुख में भारी 
  • तब जा के सुधि आई 
  • मुझको राम तुम्हारी। 

  • हर कोई हँसता था तब मुझ पर 
  • जैसे वो हो संत बड़ा ही ज्ञानी 
  • लेकिन मेरी विपदा को दूर कर सके 
  • ऐसा नहीं मिला कोई मुझको प्राणी। 

  • मैं अपने ही क्रंदन से त्रस्त पड़ा था 
  • जग को घाव दिखा नहीं सकता था 
  • मजबूर,विवश मैं लाचार बड़ा था 
  • सच तो ये कि तुझपे भी विश्वास नहीं था। 

  • पर मरता-पड़ता,आखिर क्या न करता
  • जैसे- तैसे,झूठ-मूठ को  नाम तेरा था रटता
  • वैसे तो मैं काम को ही  नित था ध्याता 
  • लेकिन कृपा से तेरी वो राम नाम बन जाता।

  • अब जब तूने अपने अंगराग से 
  • मुख मेरा  कुछ धुलवाया है 
  • सच कहता हूँ इस जीवन का 
  • असल स्वरुप दिख पाया है।  
  •  


214 - जानता हूँ भगवन

जानता हूँ भगवन
हर बार पसोपेश में
डाल देता हूँ मैं तुम्हें।
कभी धूप तो कभी
छाया के लिए अक्सर
बेवजह तंग करता हूँ।
जबकि तुम्हारी कृपा से
जानता हूँ कि न दुःख
न ही सुख रुकेगा मेरे लिए।
वो तो सदा बहेगा
हवा के झोंको की तरह।
कभी सर्द कभी गर्म
ये मौसम का मिजाज जो है।
और फिर ये भी की
कठिन दौर चले कितना ही
मुश्किल हो बड़ी साँस भरनी।
पर हर हाल में जीत
पक्की होगी मेरी ही।
क्योंकि जन्म से पहले ही
लिख के दी है मुझे
तुमने अपनी आश्वस्ति पक्की। 

Friday, 5 September 2014

213 - गुरुदेव दे सकूँ आपको






गुरुदेव दे सकूँ आपको
गुरु दक्षिणा कुछ भी
इतनी सामर्थ्य मुझमें नहीं।
मुझे प्राप्त है जो कुछ भी
प्रतिष्ठा,धन,वैभव,श्री
वह सब है एकमात्र आपकी
कृपा के फलस्वरूप ही।
अतः यही कामना मेरी
मिलती रहे चरन धूलि
जीवनपर्यन्त मुझे यूँ ही।  

Thursday, 4 September 2014

212 - शिक्षक -दिवस






शिक्षक -दिवस का है आज बड़ा ही पुण्य अवसर
श्रद्धा नमन करते गुरुवर आपको शीश झुकाकर।

आपके ही नित दिखाए मार्ग पर हम चलकर
सहज ही पहुँच गए शून्य से चल शिखर पर।

आदर सम्मान कैसे कर सकते हम आपका गुरुवर
सब तो है  मिला आपसे हमारा कहाँ कुछ यहाँ पर।

बस चाहते हैं मिलता रहे आशीष आपका हमें निरंतर
यूँ ही चलता रहे जीवन हमारा जैसे हो एक त्यौहार।


शत-शत नमन एवं अभिवादन। 

Wednesday, 3 September 2014

211 -साईं कृपा याचना






साईं कृपा याचना यही मेरी आराधना
हर छन,हर साँस बस यही एक कामना।

दरअसल तो इसमें बस स्वार्थ की है साधना
कल्पवृक्ष छोड़ भला अन्य को क्यों चाहना।

उसका रूप आगार बड़ा अदभुत है जानना
सो कृपा मन्दाकिनी,गोता लगाना हूँ चाहता।

यद्यपि दुर्बल बड़ा,मन मलिन खुद को हूँ मानता
उतारे पार मुझको राम मेरा,ये भी हूँ जानता।

प्रीत भरी रीत की जो,भक्त रखता पराकाष्ठा
सूर,तुलसी के सदृश उर जमे हूँ यही चाहता।

Tuesday, 2 September 2014

210 - एहि कलिकाल न साधन दूजा।



एहि कलिकाल न साधन दूजा।
जोग जग्य तप व्रत पूजा।।          उत्तरकाण्ड 129/5


उचार लो तुम बस हरी का नाम
जैसे भी हो हर पल सुबह-शाम।
इस कलिकाल में कहाँ भला
वर्ना मिले तुम्हें जरा विश्राम।
जप-तप-पूजा और ध्यान-धारणा
इस युग कहाँ बनाए जरा भी काम।
एक आधार बस यही राम का नाम
धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष का सुन्दर धाम।  

Monday, 1 September 2014

209- ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई।




ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई।
राम भजे गति केहि नहिं पाई।।     उत्तरकाण्ड 129/8


राम का नाम,बस यही एक नाम
दिन रात,हर घडी-पल,सुबह-शाम।
राग-द्वेष,छल-कपट का छोड़ जंजाल
हृदय बना तू अपना,निर्मल और विशाल।
जप ले मन तू छोड़ लौकिक सब आस
राम करेंगे क्यों न तेरे उर भला वास।
नाम का राम के बड़ा यही चमत्कार
जीव ले भूल से भी,हो जाए बेडा पार।