Monday, 25 September 2023

595: ग़ज़ल: दहलीज पार कर न सका

नब्ज़ को टटोला,जब उसकी चारागर ने,हाथ लगा।
बंद थी वो तो मगर,दिल नाम लेकर,था धड़क रहा।।

मासूम चेहरा बनाकर,रंग-बिरंगे जज्बात सजा लिए।
महफिल को उसने ऐसे,दो घड़ी सरेआम लूट लिया।।

आईने ही आईने आशियाने में,उसके लगे हैं चारों तरफ।
सब देखते हैं अक्स अपना,खुद को पर है उसने छुपाया।।
  
नीले गगन में टिमटिमाते तारे,बेतकल्लुफ बतियाते दिखे। जमीं पर मगर कोई भी,पार दहलीज अपनी न कर सका। 

"उस्ताद" तुम तो लिख सकते हो कुछ भी,किसी पर भी। 
ये इख्तियार-ए-हुनर तो तुमको मलिक ने है अता किया।।

नलिनतारकेश@उस्ताद

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