Tuesday, 19 September 2023

589::ग़ज़ल :लिखवाता तो ईश्वर था।

घर से दूर गया तो भीतर छुपा बड़ा एक डर था।
जहे नसीब देखिए मेरा वहाँ भी अपना घर था।।

कदम ठिठकते हैं नए सफर पर अक्सर हमारे।
चला तो जगह-जगह मिला मील का पत्थर था।।
 
बेकरारी थी जो जिंदगी में कुछ नए रंग भरने की।
मेरे ख्वाबों को हकीकत में बदलता वो सफर था।।

कुछ भी तो नहीं किया शोहरत पाने की खातिर।
ये सब महज इबादत और दुआओं का असर था।।

आसां होता नहीं है तकदीर को बदलना कभी भी।
जो बदला अगर तो बस एक जुनून और जिगर था।।

बगैर पढ़े-समझे ककहरा जो कुछ हूँ लिख सका।
कलम बनाकर "उस्ताद" लिखवाता तो ईश्वर था।।

नलिनतारकेश@उस्ताद

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