Sunday, 10 September 2023

580: ग़ज़ल:दरख़्त अब न काटना

उदास ग़ज़ल की झील पर पांव लटका कर जो बैठा। 
मेरी तन्हाई का गम सारा पलभर में छूमंतर हो गया।।

जाने क्यों लोग डरते हैं जरा-जरा सी दर्द,तकलीफ से।
जरूर कुछ देर होगी मगर उसका मजा अलहदा होगा।।

ये चांद के करीब जाकर क्यों उसे तू बदसूरत कह रहा।
बेगैरत तूने कभी इश्क सच्चा नहीं महज ढोंग ही रचा।।

उजालों का मुसाफिर जो खुद को कहे तू बड़े गुरूर से। 
जरा कभी अपने भीतर चिराग एक जला के देख लेता।।

हवाओं की जुल्फों से जो अहसासे खुशबू भीतर भर रहा।
कसम"उस्ताद"तुझे उसी की,दरख्त अब और न काटना।।

नलिनतारकेश @उस्ताद

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