Wednesday, 17 April 2019

120-गजल

जुदा होकर जो सदा रूह मेरी बसता रहा।
सदा आंख उसके लिए मोतियां गुंथता रहा।।
फासले हैं यह मानोगे तो वो तो रहेंगे ही यार मेरे।
कदम बढ़ाने से मगर फासला कहां बढता रहा।।
जब रुसवाईयों की बारात ही सज-धज के हो चल रही।
महज कानाफूसियों को देना इल्जाम किसे पचता रहा।।
सियासत की इस शतरंज का कमाल तो देखिए हुजूर।
नवाबों के खेल में शह-मात से गरीब  पिसता रहा।।
बूढ़ा बरगद बचा है जो कंकरीट के जंगल में एक अदद।
वो बिचारा भी सदा परिंदों की आवाज को  तरसता रहा।।
मासूम पुतली आंख की पलकों में कैद हो रह गई।
खुले आकाश मगर वो गिद्ध वहशी उड़ता रहा।।
"उस्ताद"सजदा तो तुमने किया और हमने भी किया।
हां,इबादत के सलीके में जरूर फर्क पड़ता रहा।।

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