Saturday, 24 August 2024

६८२: ग़ज़ल:बिस्तर में आते ही नींद काफूर हो जाती है न जाने क्यों


बिस्तर में आते ही नींद काफूर हो जाती है न जाने क्यों।
याद उसकी बिछड़ कर सोने नहीं  देती है न जाने क्यों।।

वो मौजूद है जब हर जगह जर्रा-जर्रा फिर भी कैसे कहूं।
भला वो सांवली सूरत नजर आ नहीं रही है न जाने क्यों।।

बिछड़ कर उससे एक पल के लिए भी जीना है मुश्किल। 
ये फिर भी कमबख्त सांस आती जा रही है न जाने क्यों।।

वो कुछ नहीं कह रहा है फिर भी हम जान तो रहे सब।
बता फिर कौन सी बात कदम खींचती है न जाने क्यों।।

जाना है तय एक दिन सभी तो जानते हैं यहां से मगर। "उस्ताद" देखिए हमारी तैयारी आज भी है न जाने क्यों।।

नलिन "उस्ताद"

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