Saturday, 24 August 2024

६८१: ग़ज़ल : हर कदम हम तो जुवारी सा दांव रखते हैं

हर कदम हम तो जुवारी सा दांव रखते हैं।
हर सांस-सांस खुद पे ही भरोसा करते हैं।।

दौलत,शोहरत ये सब पागलपन ही तो है।
कसम से हम कहां इस पर यकीं रखते हैं।।

वो रास्ते में मिला तो थोड़ी गुफ्तगू हो गई।
वरना किसी से हम कहां यूं बात कहते हैं।।

बर्फ़ जमें रिश्तों में तो बस एहतियात बरतना।
कुछ देर चुप बैठने से वो खुद पिघल जाते हैं।।

उससे बिछड़ हम गमगीन हो जाते क्यों कर।
हर हाल जब हरे जख्म संग रहना जानते हैं।।

लहरों की आवाजाही देखने में इतने मगन हुए। 
यार हम तो खुद को ही समंदर समझने लगे हैं।।

कदमों के निशान तो बने मगर सब मिट गए।
हम भूल कर गए कि कदम रेत पर रखते हैं।।

समन्दर संग खेलने सूरज की रोशनी आ गई।
चुपचाप साहिल तो बस रंग बदलते देख रहे हैंं।।

सच कहें तो "उस्ताद" डरता हैं बस उनसे ही।
शागिर्द होकर जो रंग गिरगिट सा बदलते हैं।।

नलिन "उस्ताद"

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