नेत्र निर्निर्मेष निहारते हैं प्रकृति के उद्दात सौन्दर्य को।
हम हैं भूलोक में या उड़कर आ गए हैं स्वर्गलोक को।।
ऐसे अद्भुत परिदृश्य की थी किसे परिकल्पना स्वप्न में।
पर यहां ये हो रहा है साकार मूर्तमान विलक्षण रूप में।।
हरियाली ही हरियाली छाई है नयनों की सीमा पार कर।
ईश्वरीय है ये असीम अनुकम्पा जो मिल रही कृपा कर।।
उन्नत पहाड़ियों की संकरी,सर्पीली,सड़कों में चलकर।
अत्यंत रमणीय नयनाभिराम दृश्य आते हैं हृदय छूकर।।
रात्रि का नीरव सन्नाटा हो या हो प्रभात का अप्रतिम रूप।
अवलोकन हर घड़ी हमें दृश्यमान कराता है अद्भुत रूप।।
बालि प्रदेश मंत्रमुग्ध हूं जितना भी कर पा रहा सौंदर्य पान।अकथनीय,अवर्णनीय रूप का नेत्र करें कैसे सम्पूर्ण पान।
नलिन "तारकेश"
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