Tuesday, 6 August 2024

६६६: ग़ज़ल: बहुत साफ़ दिख तो रहा है महबूब मुझको मेरा

बहुत साफ़ दिख तो रहा है महबूब मुझको मेरा।
बुरा नहीं जो नज़र का चश्मा भी साफ़ हो मेरा।।

बादलों के मिज़ाज तो होती ज़र्रा-ज़र्रा आवारगी।
बस इस बात से डर कर वो यार नहीं सोचो मेरा।।

कहता रहे चाहे लाख जितना चाहता नहीं उसको।
ज़रा तबियत से उसके आस्ताने दिल खोजो मेरा।।

बहुत तजुर्बा किया तो भी भला हासिल हुआ है क्या।
वो जब होना ही ना लिखा था हाथों की लकीरों मेरा।।

नाकाम भी रहेंगे इश्क में तो कोई हर्ज नहीं "उस्ताद"।
एक उम्मीद में हर घड़ी ये दिल रहेगा धड़कता तो मेरा।।

नलिन "उस्ताद"


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