Monday, 19 August 2024

६७७: ग़ज़ल : घर से दो कदम भी अक्सर मैं निकलता नहीं हूं



घर से दो कदम भी,अक्सर मैं निकलता नहीं हूं। 
हां निकल जाऊं तो,पंख अपने समेटता नहीं हूं।।

खुद ब खुद ही आकर पंख लगा देता है कोई न कोई।
सच ये है इसकी खातिर किसी से कुछ कहता नहीं हूं।।

जो बन के हसीं हमसफ़र साथी,सफर में वो बांह थामे।
लम्बे रास्ते चाहे उबड़-खाबड़,कभी मैं घबराता नहीं हूं।।

झरने,समंदर,पहाड़,झीलें और वादियां हरी या खुश्क सी।
जाने कहां-कहां,कैसे-कैसे नज़ारे कहूं कैसे देखता नहीं हूं।

तजुर्बा तब्दील हुआ हकीकत "उस्ताद" अब तो बस यही।
संभाले है डोर मेरी वही,खुद से मैं कुछ भी करता नहीं हूं।।

नलिन "उस्ताद"

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