Wednesday, 7 August 2024

६६७: ग़ज़ल: न तूने ग़लत कहा है न मैंने कुछ ग़लत कहा है।

न तूने ग़लत कहा है न मैंने कुछ ग़लत कहा है।
बस देखने,समझने का नजरिया जरूर जुदा है।।

वो महफ़िल में आया है मगर सादगी के साथ में।
उसे मालूम है कैसे भीड़ में भी अलग दिखना है।।

हर एक लगाने को तैयार है बेवजह इल्ज़ाम हम पर।
खुद के मगर सने वो ख़ूं के हाथों को नहीं देखता है।।

मिलन आसमां और धरती का रास उनको क्यों आए।
जिनके अपने घरों में हर जगह कैक्टस का बगीचा है।।

डूबे जहां सूरज वहां होना शाम का अंधेरा लाज़मी है।
मगर बिछड़े जो "उस्ताद" तुझसे कहां कोई उजाला है।।

नलिन"उस्ताद" 

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