Thursday, 22 August 2024

६८०: ग़ज़ल: असल से ज्यादा असल बना रहा है आदम नकल को

असल से ज्यादा असल,बना रहा है आदम नकल को।
सीखा है हुनर खुदा से,जैसे वो बनाता है हमशक्ल को।।

जब देखा ही लिया है यार की आंखों में आंखें डालकर।
देखता है भला अब क्या तू आईने में खुद की शक्ल को।।

यूं भटकते न दर-दर की ठोकर खाते कभी सफर में।
काश जो भेंट करा पाते उम्र से अपनी इस अक्ल को।।

इंद्रधनुषी खुमार तो टूटना ही था बेवफा संग एक दिन।
जज़्बात में बह बनाया जो ग़लती से बालू के महल को।।  

गरज कर बरसते थे मूसलाधार "उस्ताद" वो पड़ोस में ही।
रहे खुश्क होंठ अपने जो ढूंढने चले सावन के बादल को।।

नलिन "उस्ताद"

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