Tuesday, 13 August 2024

६७१: ग़ज़ल: ख्वाब सुनहला जो भी देखा निकाला वो तो झूठा है

ख्वाब सुनहला जो भी देखा निकला वो तो झूठा है।
जो है नंगी आंखों का सच पर वो भी रहता झूठा है।।

आती-जाती लहरें सागर की,खूब मचलती रहती हैं।
कभी किसी एक लहर को साहिल पर ठहरे देखा है?

खुली हुई आंखों से जितना हर कदम पर हमने देखा।
वो सच भी जितना सच माना वो भी महज़ उथला है।।

कडुवा सच हो,नंगा सच हो या जैसा तुम कहना चाहो।
सच में सच कितना सच्चा है किसने उसको जाना है।।

"उस्ताद" है कहता रहता,जो कुछ भी,जितना भी तुझसे।
है बस उस घटी,काल का सच जो तुझपे फलित रहता है।।

नलिन "उस्ताद"

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