Sunday, 9 June 2024

६२३: ग़ज़ल: जीने की कोई वजह

जीने की कोई वज़ह समझ नहीं आ रही जान लीजिए।
खुदा कसम मगर मरने को भी हम तैयार नहीं मानिए।।

जमाने का दस्तूर ही यही है तो कोई क्या करे बताईए।
हर कदम गिरकर,संभल चलने को तैयार रहा कीजिए।।

यह रोजमर्रा की कवायद,खून पसीने को बहाती जिंदगी।
बड़े एहतराम से चाहती है होठों पर आपके हंसी जानिए।।

आप तो माशाअल्लाह कमाल के‌ हैं कोई भला क्या कहे।
खुदा कसम हम न समझ पायेंगे आपको सो‌ रहम करिए।।

क्या कहना चाहते थे और क्या लिख गए "उस्ताद" हम।
बस मज़मून थोड़े से में,इससे ही बरख़ुरदार जान जाइए।।

नलिन "उस्ताद"

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