Monday, 24 June 2024

६३४:: ग़ज़ल: ऐसा नहीं की जमाने का चलन जानता नहीं

ऐसा नहीं की जमाने का चलन जानता नहीं।
ये अलग बात है कभी मैं उसे जताता नहीं।।

यूं तो ढका-छुपा अब कुछ भी कहां रहता यारब।
रस्म-अदायगी को मगर पर्दादारी से बचता नहीं।।

किस्से तो मेरे पास हज़ार हैं उसकी बेवफाई के। 
पर किसी को कभी बदनाम करना चाहता नहीं।।

तेरे-मेरे किस्से खुशबू की तरह हर जगह महक रहे।
शुक्र मना,इस पर किसी बुरी नज़र का साया नहीं।।

हवा के झौंके उम्मीद तो जता रहे हैं बरसात होगी।
कल पर मगर "उस्ताद" भी कुछ कह सकता नहीं।।

नलिन "उस्ताद" 

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