Thursday, 13 June 2024

627: ग़ज़ल: प्यार का ककहरा

भला कौन किसके संग दफन हो सका।
रिश्ता तो रूह का ही ता-उम्र बना रहा।।

प्यार जिसने भी किया महज़ जिस्म से।
उसे निभाना ये सौदा बड़ा महंगा पड़ा।। 

खुशबू निगाह से जब तलक छलके नहीं।
मोहब्बत को तुमने असल ज़िया ही कहां।।

कशिश रूहानी बच्चों का कोई खेल नहीं। 
जो पड़ा मरना तो भी वो गहरे डूबता रहा।।

"उस्ताद" जाने कितने जन्मों से की थी शागिर्दी।
आलिम हुए,पर सीख न सके प्यार का ककहरा।।

नलिन "उस्ताद"

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