Monday, 17 June 2024

628: ग़ज़ल: फिजाओं में आज अलग एक

फिजाओं में आज अलग एक सुगबुगाहट भरी थी।
दिले अजीज से मिलेंगे हमें ये बेकरारी हो रही थी।।

वो न आए आखिर,मगर अच्छा बहाना बना दिया।
ठगे रह गए,वफा की उनसे उम्मीद ही बेमानी थी।।

दिख तो गए आज इत्तेफाक से वो हमें राह चलते हुए।
मगर मिलते भला क्यों,तकदीर ही जब राजी नहीं थी।।

रहेंगे हम बड़े सुकून से कुदरत की जुल्फ़ें संवारते हुए।
भूल गए मगर देखभाल भी उसकी करनी जरूरी थी।।

"उस्ताद" से भी खेल कर जाते हैं बड़ी मासूमियत से वो।
उसपे तुर्रा ये भी कि ज़िन्दगी ही‌ हमें धोखे‌‌ देती रही थी।।

नलिन "उस्ताद" 

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