Saturday, 2 November 2019

गज़ल-265:अपने ही शहर में

अपने ही शहर में हमें तो कोई भी जानता नहीं।
रहे किसी के कातिल नहीं सो पहचानता नही।।
ये सच नहीं कि मैं झूठ कभी बोलता नहीं।
हाँ किया हो वादा तो फिर पीछे हटता नहीं।।
भीड़ तो बढ़ रही खूब जहीन आलिम फाजिलों की। मुश्किल यही कि आदमी अब भी कोई मिलता नहीं।।
आँख से दर्द है कि बढ़ता ही जा रहा बिछुड़ने का। 
हद ये है आँख से एक भी कतरा क्यों रिसता नहीं।। 
मुद्दतों बाद मिले हैं उनसे तो दुआ-सलाम भी हुई।
जाने क्यों फिर भी रिश्ता पुराना सा महकता नहीं।।
लिखने को तो लिखता रहा हूँ खोल कर अपना दिल।
तौबा मगर जज़्बात कभी भी मैं अपने बेचता नहीं।।
समझाता था उन सबको उनके ही भले की बात मगर।
"उस्ताद"की बात पर अमल यहाँ कोई करता नहीं।।
@नलिन#उस्ताद

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