Monday, 26 November 2018

गीत :संभल कर बोलने पर भी

संभलकर बोलने पर भी कभी,शब्द बिखर जाते हैं।
अर्थ का बड़ा अनर्थ कर,राग-द्वेष जगा जाते हैं।।

प्रीत हो यदि गहरी किसी से भी किसी जन की।
दूर रहते भी सतत मन के तार जुड़ जाते हैं।।

हो हौंसला मंजिल को अपनी पाने का उमंग भरा।
सतरंगी सपनों को हकीकत के पंख लग जाते हैं।।

सुधा रस भरे नेह के आखर जब निकलें हमारे मुख से।
कठोर से कठोर हृदय भी देखो क्षण में पिघल जाते हैं ।।

पुचकार कर कंधे पर हाथ रख कर सहला जो दो ।
हों भटकते कदम लाख किसी के वो सम्भल जाते हैं।।

निष्कपट साधना जो नित्य ही सहज करते रहें।
परमेश्वर अखिल विश्व के दिख हमें जाते हैं।।

यह सत्य है कि नर में ही छिपे रहते हैं श्रीहरि नारायण।
समझते-बुझते फिर ना जाने क्यों हम भटक जाते हैं।।

जात-पात,कुल-धरम-भेद सब परे छोड़कर जो बढ़ें।
उर सरोवर निर्मल "नलिन" शतदल खिल जाते हैं।।

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