Saturday, 7 July 2018

गजल-236:मोहल्लेबाजी की एक बानगी

मोहल्लेबाजी की एक बानगी
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सुबह-सुबह मोहल्ले में जो झगड़ा हो गया। पड़ोसियों का ये नया भरपूर खेला हो गया।

बाहर निकल कर कोई तो ओट से मौज ले रहा।
लुंगी संभाल कोई खुद ही अल्लामा*हो गया।।*महाविद्वान

बहता है रोज यूँ तो बेकार नल,मगर सुनो जरा उनकी तकरीर।
आदत से बचत की उनकी ही जमीं में पानी जमा हो गया।।

घर में खिलाते नहीं ढंग से बुजुर्गों को कभी जो खाना।
गाय,कुत्ते को खिलाना अब पैशन ये उनका हो गया।।

थके माँदे घर में देख ताला,पड़ोस में खा-पी के सो जाना।
किसी अजूबे सा वो दौर तो,आंखों को अब सपना हो गया।।

झगड़े होते थे पहले भी,मगर सुलह होती थी जल्दी ही।
न जाने कैसे बिना झगड़े अब बन्द बोलना  हो गया।।

यूं तो रही नहीं"उस्ताद",पुरानी सी बात अब तो।
पीठ से सटा घर भी आजकल,गैर सा अंजाना हो गया ।।

@नलिन #उस्ताद

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