Wednesday, 11 July 2018

गजल-102 घर के भीतर ही जबसे दुकान हो गई

घर के भीतर ही जबसे दुकान हो गई।
आदत तोल-मोल की पहचान हो गई।।

ना किसी की खातिर रोना,ना हंसना कोई के लिए।
ये मस्त फितरत हमारी सदा को वरदान हो गई।।

पहले तो भाइयों में आपस में छनती बहुत थी।
अब शादी से रोज लगता,गिरस्ती मचान हो गई।।

बार बार देखना पलट के हमको उसका। लगता है उसकी मोहब्बत ऐलान हो गई।।

वतन के खातिर हो गया जवान शहीद देखो। राजनीति मगर कुछ की और जवान  हो गई।।

सपनों में तो आती है रोज मुझसे मिलने।
हकीकत में न जाने क्यों अनजान हो गई।।

देख कड़ी धूप मशक्कत उसे करते हुए।
लबालब भरी ऑखें मेरी थकान हो गईं।।

कट गया सफर ये जिंदगी का राजी-खुशी।
लो अच्छा हुआ "उस्ताद" ए अजान हो गई।।

@नलिन #उस्ताद

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