Sunday, 1 July 2018

गजल-233:जयचंद हो रहे

ना जाने इतने जयचंद ये कैसे हो रहे।
पिलाया जिन्हें दूध वो सपोले हो रहे।।

यहां भला अब कौन किसकी परवाह करे। सब के सब तो खलीफा बगदाद के हो रहे।।

हर दिन दिया था पानी तो भी कुम्हला गए। एक ही बरसात मगर वही पेड़ हरे हो रहे।।

ढूंढने से मिलेगी गैरत अब एक-आद में।
वरना तो अब हमाम में सब नंगे हो रहे।।

लब सिल लिए और कभी उफ भी न की।
बता फिर क्यों बदनामी के चरचे हो रहे।।

देखो बांधना गंडा उस्ताद  संभाल के तुम।
शागिर्द यहाँ के आजकल बड़े टेढे हो रहे।।

@नलिन #उस्ताद

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