Friday, 15 December 2017

कुमाऊॅनी होली

17 दिसम्बर 2017 से प्रारम्भ हो रहे प्रथम पूष के रविवार पर विशेष रूप से

कुमाऊनी होली :अलग रंग,अलग ढंग
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भारत देश विविध संस्कृतियों का संगम है। यहां साल भर तीज त्योहारों की धूम रहती है। इन मौकों पर सभी एक दूसरे को शुभकामनाएं देते हैं।दरअसल देखा जाए तो यह त्योहार भाईचारे व अपनत्व की भावना को ही मजबूत करते हैं और एक दूसरे के भीतर हाथ बंटाने की भावना जगाते हैं।ऐसा ही एक त्योहार है होली जो देश के विभिन्न भागों में अलग अलग अंदाज में मनाया जाता है।देश के कुमाऊंनी अंचल में मनाई जाने वाली होली मात्र एक दिन चलने वाला त्योहार नहीं बल्कि यह कई दिनों तक चलने वाला उत्सव है।यहां गीत संगीत के साथ खेली जाने वाली होली का अपना अलग ही अंदाज़ है।पेश है इस त्यौहार की बहुरंगी छटा को दर्शाता एक संक्षिप्त आलेख:

प्रकृति ने अपने अनमोल सौंदर्य को भारत भूमि पर जिस मुक्तहस्त से बांटा है उसकी प्रशंसा के लिए शब्द कम पड़ते हैं।फिर यदि बात हो नयनाभिराम दृश्य से अटे पड़े उत्तराखंड प्रदेश की जहां प्रकृति स्वयं श्रृंगार कर नृत्य करती हो हास परिहास करती हो तो वह सौंदर्यसुख वाणी या लेखनी का विषय बन भी नहीं सकता है।वह तो नेत्र और हृदय को ही तृप्ति देता है।ऐसी नैसर्गिक रमणीयता से सजी संवरी पहाड़ों की संस्कृति,उत्सव,त्योहार की विविध छैल- छबीली परंपराएं पाषाण हृदय में भी सम्वेदनाओं की कोमल हरी दूब अंकुरित करने में सर्वसमर्थ हैं।होली का त्योहार जो रंगों का अद्भुत पर्व है यहां भरपूर उल्लास उत्साह से मनाया जाता है। ऐसा स्वाभाविक भी है क्योंकि पहले तो पहाड़ की प्राकृतिक सुषमा फिर बसंत बहार तिस पर रंगों का उत्सव होली सब मिलकर ऐसा समां बंधता है कि बच्चा,बूढा,जवान कोई भी इसके प्रभाव से अछूता नहीं रह पाता है।हर कोई मदमस्त हो नाचता गाता इठलाता फिरता है।कुमाऊं की होली का अपना एक अलग रंग और अंदाज है।इसके साथ जो चीज बहुत गहराई से जुड़ी है वह है संगीत।बिना संगीत के यहाॅ होली की कल्पना करना भी कठिन है।संगीत के साथ होली से जुड़े गीतों में कथ्य का भी महत्व है। आध्यात्मिक,साहित्यिक और सामाजिक चेतना से जुड़े विषयों से समृद्ध यहां की होली सामूहिक अभिव्यक्ति का माध्यम भी है।यहां होली मात्र 1 दिन चलने वाला त्योहार नहीं बल्कि कई दिनों तक चलने वाला उत्सव है। होली की धमक पौष मास के पहले इतवार से ही सुनाई पड़ने लगती है।मोहल्ले-मोहल्ले होली की बैठक के घरों या मंदिरों में गुड़ से मुंह मीठा कर के शुरू हो जाती हैं।दरअसल पौष माह में भी पहाड़ों में ठंड अच्छी खासी रहती है।फिर इस माह को लौकिक मांगलिक कार्यों में वर्जित होने से काल-म्हैण (काला महीना)भी कहा जाता है।अतः लोग आग तापते हुए सामूहिक बैठकी में होली गीतों का आनंद उठाते हैं।पौष मास के प्रथम रविवार से बसंत पंचमी तक भक्ति,दार्शनिक, आध्यात्मिक,विरह आदि रचनाओं को गाया जाता है।वसंत से श्रृंगार,रास,हास्य व रंग की रचनाएं शुरू हो जाती हैं।शिवरात्रि को शिव स्तुति से संबंधित रचनाएं मुख्य होती हैं।इसी दिन से गायन कक्ष में अबीर गुलाल लगाते हैं। मुख्यतः यहां की होली को तीन भागों में बांट सकते हैं। 1)बैठी होली 2)महिला होली एवं 3)खड़ी होली।
बैठी होली:
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सामान्यतः पुरुष अपनी होली की महफिलें जल्दी शुरु कर देते हैं। हारमोनियम तबला वायलेन सारंगी पखावज मंजीरे जैसे वाद्यों के साथ होने वाली शास्त्रीय रागों पर आधारित गायकी में कांस्य/स्टील के लोटों पर 2 सिक्कों द्वारा निकाली गई चित्ताकर्षक ध्वनि की संगत का एक अलग ही सात्विक नशा छा जाता है।पीलू, भीमपलासी और सारंग जैसे रागों के साथ शुरू हुई होली कल्याण,देश,
खम्माज,काफी, जंगला काफी, श्याम कल्याण,यमन के साथ ही भोर के राग भैरवी पर विराम लेती है। इसकी खासियत यह है कि एक गायक गीत शुरू करता है और फिर उसे अन्य लोग एक-एक करके आलाप तानों से अलग अलग ढंग से सजाते जाते हैं।विलंबित मध्यम से दुत्र लय पकड़ फिर मध्यम से विलंबित हो घूमफिर के होली गीत फिर उसी गायक के स्वर में विश्राम लेता है। तबले पर लगने वाला होली का ठेका 14 मात्रा की धमार ताल 14 मात्रा की चांचर ताल को 16 मात्रा में ढालकर प्रयोग किया जाता है।यह प्रयोग सभी के लिए उपयोगी सिद्ध हुआ है।होली के गानों में तबले को ठेका तीन ताल,सीतारखानी, कहरुवा के क्रम में बजाया जाता है। इसी के कारण प्रत्येक कुमाऊंवासी बिना संगीत शिक्षा ग्रहण किए परंपरागत रूप से एक दूसरे को सुनते हुए होली गीत सीखता व गाता रहा है।होली के पर्व पर मौज मस्ती करने वाले सभी लोगों को होलीयार के नाम से संबोधित किया जाता है।बैठकी में चटनी के साथ आलू के गुटके,भांग की पकौड़ी,गुजिया, दालमोट,पापड़,(आलू,साबूदाने से बने) चाय के साथ बीच-बीच में पेश किए जाते हैं तो उसके बाद पान,इलायची सौंफ भी बढ़ाई जाती है।आज की भाषा में हम इसे ब्रेक लेना भी कह सकते हैं इसके बाद नई ऊर्जा से गायकी का दौर शुरू हो जाता है।जिसमें हंसी ठिठोली भी चलती रहती है।"भव भंजन गुण गाऊं मैं अपने राम को रिझाऊं" "ऐसी चतुर नार रंग में हो रही बावरी" "होरी मैं खेलूंगी उन संग डट के"तथा "सबको मुबारक होली"जैसे बैठी होली के गीत काफी गाए जाते हैं।
महिला होली:
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बसंत पंचमी तथा शिवरात्रि से महिलाओं की होली भी शुरू हो जाती है।इनकी खड़ी होली तो पुरुषों की खड़ी होली वाले ढंग पर ही गायी जाती है किंतु बैठी होली की अलग परंपरागत धुन है। महिलाओं की होली में अधिकतर सभी महिलाएं मिलकर ही गीत गाती हैं। जिसमें तबले के स्थान पर ढोलकी की प्रधानता रहती हैं।घुंघरू भी रहते हैं। दरअसल इसमें गीत के साथ महिलाएं एक-एक करके नृत्य भी करती हैं। बेहतरीन सुर वाली महिलाएं एकल शास्त्रीय संगीत में निबद्ध रचनाएं भी गाती हैं।वही जो महिलाएं स्वान्ग या नकल उतारने में माहिर हों वह अपनी इस कला के प्रदर्शन द्वारा भी खूब तालियां और वाह वाह बटोर लेती हैं। खानपान का दौर थोड़े-थोड़े अंतराल पर चलता रहता है।महिला होली में गणेश जी का स्मरण कर"सिद्धि के दाता विघ्न विनाशक होली खेले गिरिजापति नंदन" से शुरू हो जोर पकड़ती है।जिस घर में होली की महफिल जमी हो उस परिवार के सदस्यों को आशीष देते हुए"चेली बेटी जीवन जीवैं लाख बरस" जैसे गीतों से होली विराम लेती है।
खड़ी होली:
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यह लोकगीतात्मक होती है।इसकी शुरुआत चीर बंधन के दिन से शुरू होती है।फागुन मास की एकादशी जिसे आमलकी एकादशी या रंग भरी एकादशी भी कहते हैं को चीर बंधन होता है।इस दिन सामूहिक रूप से एक जगह चीर बांधा जाता है इसके लिए पद्म की टहनी(पहाड़ में इसे पैय्यां या पईंयां कहा जाता है)पर रंग बिरंगे कपड़ों की चीर बांधी जाती है।इसमें जौं कि कुछ बालिंयाॅ और खीशे का फूल होना जरूरी होता है।"कैले बांधी चीर __ओ रघुनंदन राजा"इससे संबंधित एक लोकप्रिय गीत है।ऐसे अनेक गीतों के साथ सामूहिक नृत्य होता है।पुरुष ढोलक मंजीरे के साथ दो हिस्सों में बंटकर होली गाते हैं।इसे दो भागी होली कहते हैं।आधे एक बार शेष आधे अगली बार गाते हैं।गीतों की एक-एक पंक्ति कई बार दोहराई जाती है।
इसी एकादशी के दिन भद्रा रहित काल में मुहूर्त निकाल देवी-देवताओं पर रंग डाल कर पुनः अपने लिए चुने गए होली के दिन पहनने वाले प्रायः सफेद नए वस्त्रों में रंग डाला जाता है।इन्हीं वस्त्रों को पहनकर रंग बिरंगी टोपी लगाकर होलीयारों की टोली पूर्णिमा (होली जलने वाली रात्रि)की अगली सुबह टेसु- रंग,पानी व अबीर-गुलाल की होली खेलती है।पुरुषों की मोहल्लेवार टोलियाॅ नाचते-गाते हर एक घर के सदस्यों को आशीर्वाद देते हुए घूमती हैं।इसी प्रकार महिलाएं भी आस पड़ोस में एकत्रित होकर होली गीत गाती व आशीष देती हैं। दोपहर तक यही कायॆक्रम चलता रहता है।जिसके बाद सब अपने-अपने घरों में जाकर नहाते-धोते हैं ।"न्हाई धोई मथुरा को चले,आज कन्हैया रंग भरे"गीत यही भाव दर्शाता है।दूसरे दिन दंपत्ति टीका होता है।यानी स्त्रियां अपने पति को और देवर को टीका करती हैं। साथी ननदें अपनी भाभियों को टीका लगाती हैं। इसमें एक दूसरे को उपहारों का आदान-प्रदान भी होता है।शीतला अष्टमी के दिन शीतला देवी में गुलाल चढ़ाकर रंग- रंगीले, मौज-मस्ती से भरे इस त्यौहार का समापन हो जाता है।@नलिन #तारकेश

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