Friday, 22 December 2017

उसे चाहने से पहले

उसे चाहने से पहले खुद को देख लिया होता। आकाश-जमीन का फासला तो देख लिया होता।।

वफ़ा का मुझसे सिला मांगने वाले।
खुद का दामन कभी देख लिया होता।।

गैरों से लिपटकर दिन बिताने वाले।
फुर्सत में आईना देख लिया होता।।

बहुत दूर जा कर तो बहुत खोजा तूने।
कभी तो खुद के भीतर देख लिया होता।।

सब ने कहा और और तूने मान भी लिया।
खुद कभी तो आजमा  देख लिया होता।।

जाने कितनी परत दर परत रहता छुपा आदमी।
मुखौटा उतार उसका  कभी तो देख लिया होता।।

हाथों की लकीरें पढने वाले अरे नजूमी।
तूने कभी खुद का नसीब देख लिया होता।।

रास्ते जाते हैं इबादत के एक मंजिल।
चल के"उस्ताद"दो कदम देख लिया होता।।

@नलिन #उस्ताद

Tuesday, 19 December 2017

गजल-76 लो आज फिर हदे गम पार हो गई

लो अब फिर हदे गम पार हो गई।
ख्वाबे उम्मीद तार-तार हो गई।।

जाने कब तक चलेगा यह सिलसिला।
सुबह निकली नहीं कि शिकार हो गई।।

रोशनी-ए-दिल की जगमगाती दोस्ती।
बुझते-बुझते देखो फिर खार हो गई।।

मुस्कुराना कनखियों से देखकर हमको।
लो बढ़ी बात तो दिल का करार हो गई।।

हाथ मिला कर नौंच लेना दिल किसी का। दोस्त बीमारी अब ये भार हो गई।।

समझता ही नहीं वो तो इश्क का चलन।
ना में ही तो हां उसकी यार हो गई।।

दावे करो तुम चाहे आंकड़ों के साथ।
अकड़ उसके आगे सब बेकार हो गई।।

शफक पाक दामन था सादगी भरा।
इबादत तभी तो साकार हो गई।।

ये ना कहना की मुलाकात ना हुई उनसे। ख्वाबों में मुलाकात तो दिलदार हो गई।।

दिल दिमाग शरीर सब तो मिला है ठीक-ठाक।
खुदा की इबादत फिर क्यों दुशवार हो गई।।

"उस्ताद" जो गुरूर थी तुम्हारी उस्तादी।
कहें तो कैसे महज अब इश्तहार हो गई।।

@नलिन #उस्ताद

Monday, 18 December 2017

राम सकल नामन ते अधिका

राम सकल नामन ते अधिका
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राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरी द्वार। तुलसी भीतर बाहरेहुं जो चाहसि उजियार।।

श्री राम अखंड मंडलाकार परम ब्रह्म, परमतत्व,संपूर्ण ब्रह्मांड के कर्ता-धर्ता,निर्गुण और सगुण ईश्वरीय सत्ता के एकमात्र शक्ति स्रोत हैं। इस शब्द का प्रथम उल्लेख ऋग्वेद में रमणीय पुत्र के अर्थ में मिलता है।यूं राम शब्द में "र"अक्षर अग्नि,"आ"-सूर्य और "म"- चंद्र का प्रतिनिधित्व करता है ।अर्थात इस शब्द में तेजस्विता,प्रकाशकता और शीतलता समाहित है।अग्नि जहां परम सत्य या ज्ञान की पूर्णता का स्वरुप है और सूर्य प्राण तत्व या आत्मतत्व का तो चंद्र मानस या मन का कारक है।अतः कहा जा सकता है कि राम शब्द ऐसा पावन पुनीत नाम है जो हमारे मन में आत्मतत्व को सत्य रूप में पहचानने की ज्ञान दृष्टि उत्पन्न करता है।शिव के साथ संवाद में अपने कौतुहल को मिटाने के उद्देश्य से पार्वती उनसे पूछती है कि परम ब्रह्म पुरुष राम और दशरथ पुत्र राम क्या एक ही हैं? तो शिव को इस प्रश्न पर ही आपत्ति है और यह जिज्ञासा नादानी लगती है क्योंकि ईश्वर के साकार रूप में प्रकट होने वाला और निर्गुण निराकार रूप में अपनी शक्ति से जुड़ चेतन को आधार देने वाला तत्व वस्तुतः एकमात्र "राम"ही है ।उसके नाम,रूप,आकार भिन्न हो सकते हैं परंतु वह अजर-अमर,अविनाशी ब्रह्म जो योगियों के सहस्त्रार में खिलता है, भक्त के हृदय में खिलखिलता है, ज्ञानियों के मस्तिष्क का ताप शीतल कर तृप्त करता है, वैरागी की आंखों में नूर बन समाया रहता है, नास्तिक के अहम में अपना परिचय देता है, वह भेद बुद्धि से भले ही अलग प्रतीत होता हो पर मुलतः वह एक ही है और यह वही है जिसे हम "राम"कहते हैं।
शास्त्र वचन है "रामो विग्रहवान धर्माः" अर्थात राम साक्षात धर्म हैं और "धारणेत इति धर्मः"जो धारण करता है जो आधार बनता है वही धर्म है।इस कारण से नीति,धर्म और मर्यादा या कहें शक्ति,शील और सौंदयॆ इसकी जो मोक्षदायिनी त्रिवेणी है उसका ही संगम है "रामत्व"।सो श्रीरामचरितमानस के धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष इन 4 घाटों पर होने वाली सप्त सोपान युक्त रामकथा का हर एक के जीवन में अपनी-अपनी रुचि अनुसार साकार, निराकार आदि रूपों में तर्पण,माजॆन,स्नान, काग स्नान कुछ भी हो सभी का अपना अलग आलौकिक महत्व है।
ऐसे पतित पावन राम नाम का उच्चारण,मनन निदिध्यासन,स्मरण यदि श्रद्धापूवॆक, धैर्य रखते हुए किया जा सके तो व्यक्ति के जीवन की सार्थकता सिद्ध हो जाएगी।वैसे तो तुलसीदासजी "भायं कुभायं अनख आलसहूं।नाम जपत मंगल दिसि दसहूं" की बात दावे के साथ कहते हैं और यह बात शिव के प्रामाणिक वचन में भी निहित है।दरअसल श्रीरामचरितमानस शिव के हृदय आंगन में ब्रह्मा के विविध कौतुक की ही झांकी है जो उन्होंने लोक कल्याण हेतु प्रगट की है। यही कारण है कि मरा,मरा उल्टा जाप करने के बाद भी वाल्मीकि संसार में अपनी निर्मल यशगाथा छोड़ गए।
"राम भगत जग चारि प्रकारा" यानी जगत में चार प्रकार के राम भक्त हैं। 1/ अर्थार्थी (अपनी कामनाओं की पूर्ति हेतु)2/ आतॆ (दुख कष्टों के निवारणर्थ)3/ जिज्ञासु व 4/ज्ञानी लेकिन "चहूं चतुर कहुं नाम आधारा" के अनुसार चारों को एक मात्र राम नाम का ही आश्रय प्रिय है।वैसे भी सतयुग में ध्यान, त्रेता में यज्ञ,द्वापर में पूजन का महत्व विशेष रूप में बताया गया है लेकिन कलयुग तो जैसे अधर्म का,अनाचरण का,दुर्भाग्य-दुख का साक्षात स्वरूप है।जिसमें विधि-विधान,जप- तप कुछ करते ही नहीं बनता है अब ऐसे कठिन विषम काल का क्या समाधान हो सो आचार्यों की प्रज्ञा बुद्धि ने निर्णय लिया "नाम कामतरु काल कराला, सुमिरत समन सकल जग जाला"। यानी कि ऐसे तमसाच्छादित वातावरण में भी हमें नाम का ही आधार लेना चाहिए क्योंकि वह कल्पवृक्ष के सदृश हमारी समस्त पीड़ाओं को जड़ से नष्ट करने की सामर्थ्य रखता है।अतः "राम-राम कहि जे जमुहाई तिन्हहि न पाप-पुंज समुहाई"के वचन को झूठा ना समझकर सांस-सांस में राम का ही स्मरण,मनन होते रहना चाहिए। जब हम नाम का स्मरण करते हैं तो हमारे सामने उसका स्वरूप स्पष्ट होने लगता है।जैसे बछड़े को देखकर गाय के स्तनों में दूध उतर आता है यह कुछ वैसा ही है।निर्गुण, अगोचर रूप में हम उनकी पहचान करें या एक रूप,एक स्थान विशेष में उन्हें साकार करने का प्रयत्न करें वह तो"जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी"के तहत स्वच्छ दर्पण में जैसा देखना चाहो या कोरे कागज में जैसा लिखना चाहो उस में उतर आता है।
नौ प्रकार की नवधा भक्ति में दूसरी प्रकार की भक्ति - राम कथा के प्रति प्रेम,चौथी भक्ति- राम के गुणों का सरल मन से गान व पांचवी भक्त्ति- राम मंत्र का दृढ़ विश्वास से जाप का उल्लेख किया गया है।यद्यपि सार रूप में देखा जाए तो इन तीनों प्रकार की भक्ति में कुल मिलाकर नाम महिमा ही मुखर होती दिखती है।इसलिए ही "रामहि सुमिरेहु गायहु रामहि संतत सुनेउ राम गुन ग्रामहि" के द्वारा अपने जीवन को सफल बनाने का प्रयत्न निरंतर करने के उद्देश्य से राम तत्व का मनन, चिंतन,गायन,श्रवण प्रतिक्षण करते रहना चाहिए क्योंकि "बड़े भाग मानुष तन पावा" की सार्थकता तभी सिद्ध होगी।
"रामहि केवल प्रेम पियारा"के आधार पर कहें तो उस परम सत्ता को मात्र प्रेम द्वारा ही एकमात्र रिझा कर "करतल होगी पदारथ चारि"की स्थिति प्राप्त की जा सकती है।नाम जप पर अटूट आस्था हो जाने पर अपने छोटे बड़े किसी भी काम के लिए हमें किसी का आश्रित,किसी की सहायता,किसी के अनुग्रह की दरकार नहीं रह जाती है।हम तो सीधे- सीधे परमात्मा में अपनी आत्मा के "लय"होने के साक्षी भाव में आ जाते हैं और "जापर कृपा राम की होई,तापर कृपा करें सब कोई"। ऐसे कृपासिंधु करुणानिधान के कृपापात्र हो जाने पर सृष्टि का रोम-रोम पुलकित हो हम पर अपना आशीष,स्नेह,अपनत्व उड़ेलता रहता है क्योंकि संपूर्ण ब्रह्मांड उसकी ही तो देह है।

विश्वरूप रघुवंश मनि करहु बचन बिस्वासू। लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासू।।

तो कुल मिलाकर आशय यह है की राम-राम से शुरू होने वाली मानव जीवन यात्रा की "राम कहानी""राम नाम सत्य है"पर विश्राम लेती है। और यही अकाट्य सत्य आत्मा- परमात्मा के संबंधों का आधारभूत लेखा-जोखा है।

          ।।श्री राम: शरणं मम।।

@नलिन "तारकेश"

नजरें इनायत जो मुझ पर

नजरें इनायत जो मुझ पर हुई उसकी।
दिल दिमाग रूह गिरवी हुई उसकी।।

दौलत शोहरत तो बहुत पास में है।
जज्बात में बस कमी हुई उसकी।।

वतन की खातिर हंसते-हंसते वो मर मिटा। तारीफेकाबिल ये अदा हुई उसकी।।

जाने किस जहां में रहता है खोया हुआ।
बात तो अब आई गई हुई उसकी।।

बहुत हेकड़ी दिखाता था हारने से पहले।
आज हार सी ताजपोशी हुई उसकी।।

जमाल उसके हुस्न का गजब ढा रहा। मुलाकात दिलेयार से लगता हुई उसकी।।

हर तरफ हुआ गुलजार भगवा"नलिन" देखो।
नीचता की हर हद पार हुयी उसकी।।

"उस्ताद" ये नेता अजब कौम इसको क्या कहो।
जीते तो ठीक वरना शरारत हुई उसकी।।

@नलिन #उस्ताद

Sunday, 17 December 2017

जीने का तुझे जिन्दगी

जीने का तुझे जिंदगी,चस्का तो होना चाहिए।
मौत का भी मगर खैरमकदम होना चाहिए।।

नियत सांसे हैं,एक ज्यादा ना एक कम होगी। भरोसा मगर ये तो,हर हाल होना चाहिए।।

डरो न किसी से,अपनी राह  बेखौफ बढ़ो।
हां बेशक तुम्हें,गुरुर ना होना चाहिए।।

कमाओ दोनों हाथ दौलत,बुरा इसमें कुछ नहीं।
पर फुटपाथ सोए शख्स का,ख्याल होना चाहिए।।

झरने,फूल,तितली,परिंदे खूब महकाते हैं हमें। बाद हमारे भी रहें, ऐसा तो होना चाहिए।।

भला कैसी डर-झिझक,कैसी शर्मो-हया।
हां प्यार बस,छलरहित होना चाहिए।।

जिंदगी का गणित जनाब,है कहां आसान भला।
गुणा-भाग छोड़ बस,एतबार होना चाहिए।।

वो आएं चौखट हमारी,बिन बुलाए कभी तो।  अब ये ख्वाब तो,हकीकत होना चाहिए।।

ना जाने किस मिट्टी के बने हो"उस्ताद"तुम। दर्द सहने का मुकाम कुछ तो होना चाहिए।।

@नलिन #उस्ताद

ढाई आखर प्रेम का

ढाई आखर प्रेम का
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प्यार,इश्क,लगन,प्रीति,रोमांस,चाहत जैसे न जाने कितने अनगिनत नामों वाला यह प्रेम अपनी आशिकी की महक से जीवन में हजारों हजारों रंगों की फुहार कर हमको तरबतर भिगो जाता है।हम ठगे से रह जाते हैं। उसके जादुई पाश में क्या कुछ ऐसा है जो हमें अपना सर्वस्व उसकी चौखट पर न्योछावर कर देने को मजबूर कर देता है। बुल्ले शाह, रसखान,तुलसी से लेकर हीर रांझा,रोमियो-जूलियट तक मां बेटे से लेकर भाई बहन तक पेड़ पौधों से लेकर पशु पक्षियों तक प्रेम के ढाई आखर में जितने इतिहास रचे हैं शायद ही अन्य किसी शब्द ने रचे हों। मानव जैसे तीक्ष्ण बुद्धिजीवी को कितना सम्मोहित इतना बावला भला और किस शब्द ने कभी किया है?
दरअसल प्रेम की बात ही निराली है। उसकी पोर-पोर से जो सुधारस छलछलाता है उसका तिलस्म ही ऐसा होता है की कड़वी नीम भी मीठी हो जाती है। राजा रंक होने को इतना बेकरार इतना उन्मत हो जाता है कि जरा सा आगा-पीछा सोचने को भी तैयार नहीं रहता।
मौत के मुंह में वह ऐसी छलांग लगाता है मानो स्वर्ग की सीढ़ियां जीते जी चढ रहा हो। इतना विश्वास इतना आनंद इतना उत्साह असंभव को संभव कर देने की इतनी उत्कंठा प्रेम की निश्छल धारा में ही दिखाई देती है। अन्यत्र कहीं नहीं।इसके लिए भाषा धर्म जात पात अमीर-गरीब जैसी संकुचित दृष्टि में बेमानी होती है।
कहा जाता है मुहब्बत की जुबान नहीं होती है। यह तो दिलों की धड़कनों में धड़कती है। गालों में सुर्ख लाली बन चमकती है तो निगाहों की चमक में बरसती है। तभी तो बिहारी की नायिका लोगों की अच्छी खासी भीड़ में भी अपने प्रेमी से नैनन ही सों बात करने में सफल रहती है।फिर यह बिहारी की नायिका का ही सच नहीं सभी प्रेमियों का एक दूजे को चाहने वालों का सच है जो बेसाख्ता सामने आ ही जाता है।वैसे भी इश्क और मुश्क भला छुपाने से कहां छुपते हैं। जेठ की दोपहर में नंगे पांव अपने महबूब के दीदार के लिए दौड़ने वालों के पांव में पड़े छाले बैरन बन राज तो खोल देते हैं दिलों की चाहत का। लेकिन मजे की बात है कि दिल वालों को इस का खौफ कहां।उनकी बला से वो तो हर उठने वाली उंगली को अंगूठा दिखाते रहते हैं। यह इश्क जुनून का ही तो असर है कि देश की इबादत करने वाले हंसते-हंसते फांसी के तख्ते पर झूल जाते हैं। लैला मजनू हीर रांझा की चाहत के किस्से हर दिल अजीज हो जाते हैं। तो मीरा कि एक तारे पर अपने आराध्य की गली गली आराधना करते स्वर विषपान करके भी अजर-अमर हो जाते हैं।किसी शायर के नजरिए से
डूबना है तो इतने सुकून से डूबो की
आस पास की लहरों को भी पता न लगे।
तो प्यार के राही तो अपने आराध्य अपने प्रेमी की चाहत में ऐसे ही इतनी गहरी  डुबकी लगाते हैं कि लोग दातों तले उंगलियां दबा लेते हैं।जरा सी क्षणभंगुर मानवीय दे प्यार के पारस की गलियों में आकर इतनी स्वणॆमयी आभा वाली फौलाद बन जाती है कि सब कुछ तिलस्म से बुना स्वप्न लगता है। जब कि वह होता है ठोस हकीकत।लेकिन यह सब इतना सरल होता नहीं है जितना कि लगता है।थरथराते होठों से या झट से आई लव यू जैसे शब्दों के उगल देने से या कि फिर एक किसी खास दिन हाथों में फ्रेंडशिप बैंड ग्रीटिंग कार्ड या अन्य ब्रांडेड गिफ्ट देने से प्यार का काजल आसमान से उतरकर आंखों में इंस्टेंट नहीं लग जाता है।इसके लिए तो साधना पड़ता है अपने शरीर मन मस्तिष्क के विश्वास को पूरे सब्र के साथ।अपने महबूब की हर आहट की खुशबू को सीने में ताउम्र खूबसूरती से सजाना पड़ता है।उसमें प्यार के हजारों रंगों से पच्चीकारी करनी पड़ती है।हर बार नए उत्साह नया उल्लास से जैसे एक जोहरी हीरे को तराशता है।प्यार की हिना तब कहीं जाकर हथेलियों में खिलकर भाग्य की रेखा को कीर्ति स्तंभ में बदल जाती है।ऐसे कीर्ति स्तंभ जो सोने चांदी हीरे जवाहरात से नहीं बल्कि प्रेम के अटूट संकल्प सूत्र से बना होता है।इसलिए यह अनमोल दिव्यता अपने में संजोए रखता है और युगों-युगों तक अपनी रोशनी से कायनात को रोशन करता रहता है। प्रेम व्यक्ति को उसकी जड़ों उसके मूल अस्तित्व से जोड़ता है।प्रेम क्योंकि संकुचित छिछली धारा नहीं है ये तो बंधनों सीमाओं से परे निर्मल धारा है अतः इसके अमृतपान से मानवता पुनर्जीवित हो फिर से सांसे भरने लगती है।संत इसलिए ही तो पूजनीय हो जाते हैं क्योंकि उनके पास एक मात्र करुणामय  प्रेम की ही पूंजी होती है।बिना किसी भेदभाव के वो इसे मुक्त हस्त से लुटाते रहते हैं।दरअसल प्रेम ही है जो हमारे सृजन के लिए जिम्मेदार है।प्रेम है जो हमारा पालन पोषण करता है और प्रेम ही है जो अंत में हमें अपनी मृदुल गोद में लेकर अनंत में विलीन हो जाता है। वस्तुतः एक मात्र सच्चा प्रेम ही ईश्वर का सत्य स्वरूप है जो हमें वास्तविक लक्ष्य तक ले जाता है। सारे धर्मों का सार यही एक शब्द है इसकी मिठास तो वही जानता है जिसने एक बूंद भी इसे चख रखा है।यह आत्मा का आहार उसकी प्राण शक्ति है।सो शत-प्रतिशत खालिस है।इसमें कहीं बनावट नकल या आडंबरबाजी नहीं होती। ईश्वर क्योंकि कण कण में विराजमान है तो हमारा रिश्ता तो आत्मतत्व के चलते सबसे एक सा प्रेमपूर्ण ही होना चाहिए।इसी रुप में वह हृदय में मथा भी जाना चाहिए।इसलिए यदि हम किसी एक से भी अपने प्रेम की शुरूआत करते हैं चाहे थोड़े कम ऊंचे स्तर से भी तो भी आश्वस्त हुआ जा सकता है कि "बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी"।अंततः प्रेम का स्वरूप तो सार्वभौमिक ही है जो धीरे-धीरे परिपक्व होता हुआ अपने पूरे रंग में देर सबेर निखर कर आएगा ही आएगा।तो आइए हम प्रेम ऊष्मा से भरे आलिंगन में संपूर्ण कायनात को समाहित कर लें।इस स्तर पर कोई मैं नहीं रह पाता कोई दूसरा नहीं रह पाता। सभी मैं का ही विस्तार बन जाता है।
@नलिन #तारकेश

Friday, 15 December 2017

कुमाऊॅनी होली

17 दिसम्बर 2017 से प्रारम्भ हो रहे प्रथम पूष के रविवार पर विशेष रूप से

कुमाऊनी होली :अलग रंग,अलग ढंग
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भारत देश विविध संस्कृतियों का संगम है। यहां साल भर तीज त्योहारों की धूम रहती है। इन मौकों पर सभी एक दूसरे को शुभकामनाएं देते हैं।दरअसल देखा जाए तो यह त्योहार भाईचारे व अपनत्व की भावना को ही मजबूत करते हैं और एक दूसरे के भीतर हाथ बंटाने की भावना जगाते हैं।ऐसा ही एक त्योहार है होली जो देश के विभिन्न भागों में अलग अलग अंदाज में मनाया जाता है।देश के कुमाऊंनी अंचल में मनाई जाने वाली होली मात्र एक दिन चलने वाला त्योहार नहीं बल्कि यह कई दिनों तक चलने वाला उत्सव है।यहां गीत संगीत के साथ खेली जाने वाली होली का अपना अलग ही अंदाज़ है।पेश है इस त्यौहार की बहुरंगी छटा को दर्शाता एक संक्षिप्त आलेख:

प्रकृति ने अपने अनमोल सौंदर्य को भारत भूमि पर जिस मुक्तहस्त से बांटा है उसकी प्रशंसा के लिए शब्द कम पड़ते हैं।फिर यदि बात हो नयनाभिराम दृश्य से अटे पड़े उत्तराखंड प्रदेश की जहां प्रकृति स्वयं श्रृंगार कर नृत्य करती हो हास परिहास करती हो तो वह सौंदर्यसुख वाणी या लेखनी का विषय बन भी नहीं सकता है।वह तो नेत्र और हृदय को ही तृप्ति देता है।ऐसी नैसर्गिक रमणीयता से सजी संवरी पहाड़ों की संस्कृति,उत्सव,त्योहार की विविध छैल- छबीली परंपराएं पाषाण हृदय में भी सम्वेदनाओं की कोमल हरी दूब अंकुरित करने में सर्वसमर्थ हैं।होली का त्योहार जो रंगों का अद्भुत पर्व है यहां भरपूर उल्लास उत्साह से मनाया जाता है। ऐसा स्वाभाविक भी है क्योंकि पहले तो पहाड़ की प्राकृतिक सुषमा फिर बसंत बहार तिस पर रंगों का उत्सव होली सब मिलकर ऐसा समां बंधता है कि बच्चा,बूढा,जवान कोई भी इसके प्रभाव से अछूता नहीं रह पाता है।हर कोई मदमस्त हो नाचता गाता इठलाता फिरता है।कुमाऊं की होली का अपना एक अलग रंग और अंदाज है।इसके साथ जो चीज बहुत गहराई से जुड़ी है वह है संगीत।बिना संगीत के यहाॅ होली की कल्पना करना भी कठिन है।संगीत के साथ होली से जुड़े गीतों में कथ्य का भी महत्व है। आध्यात्मिक,साहित्यिक और सामाजिक चेतना से जुड़े विषयों से समृद्ध यहां की होली सामूहिक अभिव्यक्ति का माध्यम भी है।यहां होली मात्र 1 दिन चलने वाला त्योहार नहीं बल्कि कई दिनों तक चलने वाला उत्सव है। होली की धमक पौष मास के पहले इतवार से ही सुनाई पड़ने लगती है।मोहल्ले-मोहल्ले होली की बैठक के घरों या मंदिरों में गुड़ से मुंह मीठा कर के शुरू हो जाती हैं।दरअसल पौष माह में भी पहाड़ों में ठंड अच्छी खासी रहती है।फिर इस माह को लौकिक मांगलिक कार्यों में वर्जित होने से काल-म्हैण (काला महीना)भी कहा जाता है।अतः लोग आग तापते हुए सामूहिक बैठकी में होली गीतों का आनंद उठाते हैं।पौष मास के प्रथम रविवार से बसंत पंचमी तक भक्ति,दार्शनिक, आध्यात्मिक,विरह आदि रचनाओं को गाया जाता है।वसंत से श्रृंगार,रास,हास्य व रंग की रचनाएं शुरू हो जाती हैं।शिवरात्रि को शिव स्तुति से संबंधित रचनाएं मुख्य होती हैं।इसी दिन से गायन कक्ष में अबीर गुलाल लगाते हैं। मुख्यतः यहां की होली को तीन भागों में बांट सकते हैं। 1)बैठी होली 2)महिला होली एवं 3)खड़ी होली।
बैठी होली:
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सामान्यतः पुरुष अपनी होली की महफिलें जल्दी शुरु कर देते हैं। हारमोनियम तबला वायलेन सारंगी पखावज मंजीरे जैसे वाद्यों के साथ होने वाली शास्त्रीय रागों पर आधारित गायकी में कांस्य/स्टील के लोटों पर 2 सिक्कों द्वारा निकाली गई चित्ताकर्षक ध्वनि की संगत का एक अलग ही सात्विक नशा छा जाता है।पीलू, भीमपलासी और सारंग जैसे रागों के साथ शुरू हुई होली कल्याण,देश,
खम्माज,काफी, जंगला काफी, श्याम कल्याण,यमन के साथ ही भोर के राग भैरवी पर विराम लेती है। इसकी खासियत यह है कि एक गायक गीत शुरू करता है और फिर उसे अन्य लोग एक-एक करके आलाप तानों से अलग अलग ढंग से सजाते जाते हैं।विलंबित मध्यम से दुत्र लय पकड़ फिर मध्यम से विलंबित हो घूमफिर के होली गीत फिर उसी गायक के स्वर में विश्राम लेता है। तबले पर लगने वाला होली का ठेका 14 मात्रा की धमार ताल 14 मात्रा की चांचर ताल को 16 मात्रा में ढालकर प्रयोग किया जाता है।यह प्रयोग सभी के लिए उपयोगी सिद्ध हुआ है।होली के गानों में तबले को ठेका तीन ताल,सीतारखानी, कहरुवा के क्रम में बजाया जाता है। इसी के कारण प्रत्येक कुमाऊंवासी बिना संगीत शिक्षा ग्रहण किए परंपरागत रूप से एक दूसरे को सुनते हुए होली गीत सीखता व गाता रहा है।होली के पर्व पर मौज मस्ती करने वाले सभी लोगों को होलीयार के नाम से संबोधित किया जाता है।बैठकी में चटनी के साथ आलू के गुटके,भांग की पकौड़ी,गुजिया, दालमोट,पापड़,(आलू,साबूदाने से बने) चाय के साथ बीच-बीच में पेश किए जाते हैं तो उसके बाद पान,इलायची सौंफ भी बढ़ाई जाती है।आज की भाषा में हम इसे ब्रेक लेना भी कह सकते हैं इसके बाद नई ऊर्जा से गायकी का दौर शुरू हो जाता है।जिसमें हंसी ठिठोली भी चलती रहती है।"भव भंजन गुण गाऊं मैं अपने राम को रिझाऊं" "ऐसी चतुर नार रंग में हो रही बावरी" "होरी मैं खेलूंगी उन संग डट के"तथा "सबको मुबारक होली"जैसे बैठी होली के गीत काफी गाए जाते हैं।
महिला होली:
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बसंत पंचमी तथा शिवरात्रि से महिलाओं की होली भी शुरू हो जाती है।इनकी खड़ी होली तो पुरुषों की खड़ी होली वाले ढंग पर ही गायी जाती है किंतु बैठी होली की अलग परंपरागत धुन है। महिलाओं की होली में अधिकतर सभी महिलाएं मिलकर ही गीत गाती हैं। जिसमें तबले के स्थान पर ढोलकी की प्रधानता रहती हैं।घुंघरू भी रहते हैं। दरअसल इसमें गीत के साथ महिलाएं एक-एक करके नृत्य भी करती हैं। बेहतरीन सुर वाली महिलाएं एकल शास्त्रीय संगीत में निबद्ध रचनाएं भी गाती हैं।वही जो महिलाएं स्वान्ग या नकल उतारने में माहिर हों वह अपनी इस कला के प्रदर्शन द्वारा भी खूब तालियां और वाह वाह बटोर लेती हैं। खानपान का दौर थोड़े-थोड़े अंतराल पर चलता रहता है।महिला होली में गणेश जी का स्मरण कर"सिद्धि के दाता विघ्न विनाशक होली खेले गिरिजापति नंदन" से शुरू हो जोर पकड़ती है।जिस घर में होली की महफिल जमी हो उस परिवार के सदस्यों को आशीष देते हुए"चेली बेटी जीवन जीवैं लाख बरस" जैसे गीतों से होली विराम लेती है।
खड़ी होली:
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यह लोकगीतात्मक होती है।इसकी शुरुआत चीर बंधन के दिन से शुरू होती है।फागुन मास की एकादशी जिसे आमलकी एकादशी या रंग भरी एकादशी भी कहते हैं को चीर बंधन होता है।इस दिन सामूहिक रूप से एक जगह चीर बांधा जाता है इसके लिए पद्म की टहनी(पहाड़ में इसे पैय्यां या पईंयां कहा जाता है)पर रंग बिरंगे कपड़ों की चीर बांधी जाती है।इसमें जौं कि कुछ बालिंयाॅ और खीशे का फूल होना जरूरी होता है।"कैले बांधी चीर __ओ रघुनंदन राजा"इससे संबंधित एक लोकप्रिय गीत है।ऐसे अनेक गीतों के साथ सामूहिक नृत्य होता है।पुरुष ढोलक मंजीरे के साथ दो हिस्सों में बंटकर होली गाते हैं।इसे दो भागी होली कहते हैं।आधे एक बार शेष आधे अगली बार गाते हैं।गीतों की एक-एक पंक्ति कई बार दोहराई जाती है।
इसी एकादशी के दिन भद्रा रहित काल में मुहूर्त निकाल देवी-देवताओं पर रंग डाल कर पुनः अपने लिए चुने गए होली के दिन पहनने वाले प्रायः सफेद नए वस्त्रों में रंग डाला जाता है।इन्हीं वस्त्रों को पहनकर रंग बिरंगी टोपी लगाकर होलीयारों की टोली पूर्णिमा (होली जलने वाली रात्रि)की अगली सुबह टेसु- रंग,पानी व अबीर-गुलाल की होली खेलती है।पुरुषों की मोहल्लेवार टोलियाॅ नाचते-गाते हर एक घर के सदस्यों को आशीर्वाद देते हुए घूमती हैं।इसी प्रकार महिलाएं भी आस पड़ोस में एकत्रित होकर होली गीत गाती व आशीष देती हैं। दोपहर तक यही कायॆक्रम चलता रहता है।जिसके बाद सब अपने-अपने घरों में जाकर नहाते-धोते हैं ।"न्हाई धोई मथुरा को चले,आज कन्हैया रंग भरे"गीत यही भाव दर्शाता है।दूसरे दिन दंपत्ति टीका होता है।यानी स्त्रियां अपने पति को और देवर को टीका करती हैं। साथी ननदें अपनी भाभियों को टीका लगाती हैं। इसमें एक दूसरे को उपहारों का आदान-प्रदान भी होता है।शीतला अष्टमी के दिन शीतला देवी में गुलाल चढ़ाकर रंग- रंगीले, मौज-मस्ती से भरे इस त्यौहार का समापन हो जाता है।@नलिन #तारकेश