Sunday 21 December 2014

284 - अभिव्यक्ति का साहस



ढम-ढम, पॉ-पॉ,नगाड़ों और तुरही के सम्मिलित स्वरों ने सीता की  वैचारिक श्रृंखला को चरमरा कर भंग कर दिया। वह यथार्थ की कठोर चट्टान पर आ गिरी और तब उसे स्मरण हुआ कि वह अशोक वाटिका में अपने राम के संसर्ग का जो अनुभव कर रही थी वह झूठा था - मात्र एक दिवास्वप्न। वह तो अभी भी रावण की बंदिनी है और यह नगाड़ों-तुरही का आर्तनाद रावण के आने की घोषणा है। "रावण",उसका स्मरण आते ही सीता को मानो बिजली का नंगा तार छू गया। वह भय और क्रोधावेश दोनों का एक साथ ही अनुभव करते न जाने क्या कुछ बड़बड़ा उठी थी।
वह जानती थी रावण आते ही उससे क्या प्रश्न करेगा। इससे पूर्व दोनों बार जब वह आया है उसने वही प्रश्न दोहराया है कि "क्या वह उससे विवाह करेगी?"शायद वह चाहता है कि यदि सीधी उंगली से ही घी निकल जाता है तो जोर- जबरदस्ती से क्या लाभ ,उसने दोनों ही बार उसके प्रश्नों को अनसुना कर दिया है,मुँह खोलने की कुछ कोशिश ही नहीं की। लेकिन,संभवतः इनसे ही रावण के दुःसाहस को बढ़ावा मिल रहा है। कहीं उसे लग तो नहीं रहा की मेरी चुप्पी में सहमति का लक्षण छुपा हुआ है। नहीं,ऐसा नहीं होना चाहिए। उसके मौन का अभिप्राय ऐसा तो कतई नहीं है। वह तो मात्र इसलिए उसके प्रश्नों पर चुप्पी खींच लेती है क्योंकि यह प्रश्न उसे दुःख और वेदना के दलदल में ला खींचता है। वह जितना उससे बाहर आने की सोचती है और गहरे धसते चली जाती है। क्रोध और घृणा से उसका रोम-रोम जल उठता है। कहना वह बहुत कुछ चाहती है-अर्थपूर्ण शब्दों के समूह द्वारा न भी सही तो अर्थहीन स्वर लहरियों की मदद से ही सही,सभी दिशाओं में अपना आक्रोश भर देने को। लेकिन,ऐन वक्त पर कहाँ संभव हो पाता है यह सब। उसकी वाणी उस वक्त तो अवरुद्ध हो जाती है। तालू से चिपककर रह जाती है जीह्वा। 
आज लेकिन वह ऐसा कुछ भी नहीं होने देगी। सीता ने दृढ निश्चय करके अपने को पूर्णरूपेण तैयार कर लिया,उन परिस्थितियों के लिए जो क्षण भर में घटने वाली थीं। वो पूर्णतः निर्भीक और ऊँची वाणी में रावण को स्पष्ट कर देना चाह रही थी कि वह किसी भी हाल में उसकी अंकशयनी  बनने में रुचि नहीं लेती है। वह तो तन,मन,वचन सब प्रकार से राम के प्रेम में आकंठ डूबी है।राम के अतिरिक्त उसके हृदय में "प्रियतम" की कोई अन्य छवि न रही है न रहेगी। यदि रावण में राई-रत्ती का भी पुरुषत्व शेष है तो वह उसे लताड़ेगी। उसको सही दिशा में लाने का पुजोर यत्न करेगी। उसके मन की कलुषता को मांज कर निर्मल ह्रदय  बनाये  जाने हेतु प्रेरणास्रोत बनेगी। 
लेकिन यह सब तो उसके ख्याली पुलाव हैं। शठ की शठता का क्या और कैसा भरोसा। कहीं रावण पर इस सबकी उलटी प्रतिक्रिया न हो। वह उत्तेजित हो,क्रोधावेश में कहीं कोई दुःसाहस न कर बैठे। सीता एक  क्षण यह सोच कर किंकर्तव्यविमूढ हो गयी। तो इन सब परिस्थितियों में वह क्या करे?छोड़ दे सब कुछ नियति पर?घटनाक्रम जैसे घट रहा है उसे वैसे ही घटने दे?मूक हो चुप रह कर दर्शक बनी रहे ,बस इसलिए की अपनी असहमति या विरोध प्रकट करने के लिए बहुत अधिक जोर से चिल्लाना पड़ता है। विशेषतः तब और भी जब आपने चुपचाप ही सब कुछ सहना सीखा हो। "एक चुप हराये सौ "यह वाक्य घुट्टी में पिया हो। फिर चीखने-चिल्लाने से तो लोगों का ध्यान भी  आकृष्ट होता है। बहुधा तो लोगों को खेल-तमाशे सा आनंद आता है उस सब में। 
शांत समुद्र में बड़ी चट्टान गिर जाने से कोलाहल सा मच जाता है जैसे वैसा ही सब कुछ,क्या नहीं होगा उसके चीखने-चिल्लाने से। तो क्या वो शांत रहने दे समुद्र को,अपने मन में हज़ार ज्वार-भाटा छिपा कर,उठाने वाली उँगलियों से डर कर चुप्पी लगा ले अपने दर्द,अपनी पीड़ा को?लेकिन कब तक ?कब तक आखिर वह सहन कर सकेगी अपने शोषण को। क्यों नहीं वह अपनी असहमति को अपने अपने असंतोष को अन्याय के विरुद्ध स्वर दे पाती है। हो सकता है रावण उसको अपमानित कर दे,उसे यम के द्वार पर भी डाल दे लेकिन क्या इस भय से उसकी आवाज़ जो सम्पूर्ण मानवजाति के शोषण,अत्याचार के विरुद्ध उपजा आलोकपूर्ण,प्रतीकात्मक गान बन सकता है क्या दब जाना चाहिए? 
नहीं,कभी नहीं,सीता ने विचार-मंथन की लम्बी प्रक्रिया के बाद अपनी इस साहसपूर्ण अभिव्यक्ति को आत्मविश्वास से भरकर हवा में दोहराया। मानो वह सम्पूर्ण कायनात के वातावरण में,उसके कण-कण में यह सन्देश उन सब अपने साथियों तक पहुँचाने के लिए उतावली थी जो कहीं न कहीं ऐसी ही कुछ विषम परिस्थितियों के वज्रपात से शिथिल हो अन्मयस्क सी अचेत पड़ी थीं।फिलहाल उसके अपने आत्मविश्वास की गरजती सिंह सी दहाड़ के आगे इतना तो हुआ की अत्यंत समीप आ गए वाद्य-यंत्रो की चिंघाड़ती आवाज़ें स्तम्भित हो गयीं।मानो सीता के,एक स्त्री के अभूतपूर्व अप्रत्याशित निर्णय से उन्हें लकवा पड़ गया हो। 

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