Monday, 8 December 2014

275 -धरती के रूठे भाग जगाने(एकाँकी )


गाँव की एक सुनसान जगह। यहाँ आज पशु - पक्षियों की भारी भीड़ है। बरगद के पेड़ के आसपास
उठे मिट्टी के चबूतरे पर पशु-पक्षियों के चुने हुए पंच बैठे हैं। बरगद के पेड़ में एक सफेद कपड़ा
बाँधा गया। सफेद कपड़े पर लाल रंग के बड़े अक्षरों में लिखा है - “धरती माँ पर इंसान के अत्याचार“।
जानवरों में आपस में खुसर-पुसर चल रही है।
मेढक: चबूतरे से खड़े होकर। शान्ति! शान्ति!! भीड़ शांत होती है। भाईयों, बहनों और मित्रों
जैसा कि आप लोगों को पता है कि आज हम यहाँ आदमी के धरती माँ पर बढ़ते
अत्याचार के बदले में अपनी आवाज उठाने के लिए इकट्ठा हुए हैं। आज आदमी के
सिर पर विकास का ऐसा उल्टा  भूत सवार हो गया  है की  वो अपनी ही जड़ें खोदना चाहता है। उसे यह भी
समझ नहीं आता कि धरती के हम पर कितने उपकार हैं। वो नहीं रहेंगी तो हम,
खेलेंगे किसकी गोदी में। भाईयों, हम तो कहते हैं कि आदमी को अगर अपने मरने-जीने
की परवाह नहीं है तो न हुआ करे पर हम लोगों को काहे सताया जाए। आखिर ये
धरती मईया हमारी भी तो है।
मोर: (भीड़ में से खड़े होकर, जोर से) हाँ... हाँ, धरती माँ हमारी भी है। हम अपनी माँ पर
आदमी के और जुल्म बर्दाश्त नहीं करेंगे। क्यों भाईयों?
भीड़: (और जोर से) नहीं करेंगे, नहीं करेंगे।
मेढक: शान्त, शान्त। देखिए हम लोगों के बीच मुखिया जी भी बैठे हैं। श्रीमन शेर सिंह जी आप
बताएं कि हम इस विषय में क्या कर सकते हैं। आइए।
मुखिया: (शेर सिंह) भाईयों, मेढक जी ने ठीक कहा। धरती माँ हमारी भी है। हमें पालती है,
पोसती है। इसको साफ, खुशहाल और हरी-भरी रखना हमारा काम है। वैसे भी इससे
फायदा हमें ही होना है। अगर ये हमसे नाराज हुई तो भला हम लोग कहाँ जाकर
रहेंगे। माँ को भला कौन नाराज करता है। घर की मईया, देवी मईया और धरती मईया
अगर इनका आर्शीवाद, हमारे साथ हो तो कौन हमारा बाल बाँका कर पाए। तो भाई
लोगों हमारे ख्याल से आदमी को समझाना चाहिए। विकास तो ठीक है मगर ऐसा
विकास जिसे कोई देखने वाला न हो किस काम का। तो आप लोग अपनी राय दो।
धरती माँ और अपना दर्द बताओ। हमारे कालू कौव्वा जी उसे कागज में लिखेंगे। हम
लोग फिर कागज को लेकर घूमेंगे। हरेक आदमी को पढ़ायेंगे और समझायेंगे। आखिर
कहीं से, किसी दिशा से तो उजाला फूटेगा। अगर फिर भी बात न बनी तो हम मिलकर
आदमी को सजा देंगे। क्यों भाई हाथी दादा?
हाथी दादा: आप सही कहते हैं मुखिया जी। वैसे हम सोचते हैं सजा-वजा की जरूरत नहीं पड़ेगी।
सब काम समझाने-बुझाने से ही हो जायेगा।
बन्दर: दादा, आप ऐसा इतने विश्वास से कैसे कह रहे हो? आदमी तो महा का झक्की है। वो
हमारी बात पहले तो सुनेगा नहीं और अगर सुनी भी तो दूसरे कान से निकाल देगा।
हाथी दादा: सब आदमी एक से नहीं, बन्दर बेटा। वैसे भी आदमी इधर खुद भी इस बारे में सोचने
लगा है। घर में आग लगे तो आखिर कोई घोड़े बेच कर कब तक सो सकता है।
जो पहले जागे वो औरों को जगाए। ऐसे मौकों पर दुश्मनी भी भूला दी जाती है।
फिर हमारा उनसे ऐसा कुछ भी नहीं। जहाँ चार बरतन रहते हैं वहाँ खटर-पटर तो
होती ही है।
तोता: हाथी दादा, आप उसके अत्याचारों को चार बरतनों की खट-पट कहते हो।
चीता: आदमी हम पर बहुत जुल्म ढाता है। लेकिन कुछ आदमी अच्छे भी हैं। देखो न, अगर कुछ
अच्छे आदमी हल्ला न मचाते तो मेरी तो नस्ल ही खत्म हो जाती। जब सब को मेरी
हालत पता लगी तो उन्होंने मेरी रक्षा के लिए कई काम शुरू किए। अब हमारी हालत
पहले से बेहतर है। असल में आदमी को भी पता लग रहा है कि भगवान ने जो ये
दुनिया बनाई है तो बड़ी सोच-समझ कर बनाई है। चींटी से लेकर सूरज तक हर किसी
का अपना महत्व है।
चींटी: तभी तो आदमी के बड़े बूढ़े लोगों ने लिखा है - घट-घट में राम समाए। हर वस्तु, हर
जगह पवित्र है। उसमें भगवान जो रहते हैं। अहिंसा की बात, पेड़ों, नदियों, पर्वतोँ
पत्थरों की पूजा की बात इसलिए ही करी जिससे आदमी हर चीज से प्यार करे।
उसकी इज्जत और संभाल करे।
घड़ियाल: अब देखो न, पानी आज कितना गंदा हो गया है। गंदा पानी न जाने कितनी बीमारियाँ
उपजाता है। गंगा मईया तक गंदी हो गयीं। अब औरों की क्या कहें। वैसे जब से
आदमी को पता लगा है कि घड़ियाल पानी को साफ रखने में उसकी मदद करते हैं
तब से उसने जगह-जगह हमको नदियों में छोड़ा है।
पोखर: शहर में, घरों में पानी आता है वो तो थोड़ा बहुत साफ आता है। यहाँ मगर गाँव में
तो कोई कपड़े धोता है, कोई भैंस नहलाता है तो दूसरी तरफ से कोई पीने का पानी
ले जाता है।
कुआँ: हाँ, यही हाल हम कुओं का है। हमको ढक कर रखते नहीं हैं फिर उसमें कोई गंदी
या जहरीली चीज चली जाए तो कहते हैं ये कुआँ भुतहा है। कुओं की सफाई वाली
दवा, क्लोरीन भी कुछ ही कुओं के  नसीब में आती है।
पेड़: अरे भाई, मैं तो कहता हूँ अभी पानी तो है। भले ही गंदा सही। आदमी अगर पेड़ों को
यूँ ही काटता रहा तो सारी धरती रेगिस्तान बन जाएगी। पानी की एक बूँद को हम
तरसेंगे। पानी बरसना बन्द हो जाएगा। स्वर्ग सी धरती नर्क हो जाएगी, नर्क।
गिलहरी: मगर पेड़ चाचा, आप तो आदमी के इतने काम आते हो फिर काहे को दुश्मनी। खाने
को फल, बीमारियों के लिए दवा, ठंडी हवा, छाया, तरह-तरह की चीजें बनाने को
लकड़ी, जीने को सबसे जरूरी आक्सीजन, शोरों को कम करना, पानी बरसाना, धरती
की कटान को रोकना, खाद चारा, कोयला और भी न जाने क्या-क्या?
पेड़: गिलहरी बेटे, शायद इसलिए क्योंकि मैं ही उसके इतने अधिक काम आता हूँ। देखो,
वैसे आदमी की सोच भी अब बदल रही है। हाथी दादा, ठीक कहते हैं । मेरे लिए भी
आदमी ने बहुत कुछ करना शुरू किया है। हाँ अभी वो बात नहीं है। देखो न, एक
पेड़ लगता बाद में है कि चार पेड़ पहले कट जाते हैं। जो पेड़ लगते हैं वे भी
हट्टे-कट्टे बनते हैं या यूँ ही बिना देखरेख खत्म हो जाते हैं, कौन जाने।
कोयल: तो चाचा, आदमी को तो अब हर खाली जगह पेड़ लगाने चाहिए। घनी बस्तियों में,
कारखानों के पास, बंजर जमीन में। आपको अपने बेटे समान प्यार और सहारा देना
होगा।
तोता: कोयल बहन, तुमने पेड़ों को बच्चे मानने की बात खूब कही। इसे यूँ भी कह कसते
हैं - बच्चे दो में बस, पेड़ जितने लगे कम या एक पेड़-लाभ अनेक।
मैना: तोता भाई, “बच्चे दो में बस“ वाली बात अगर आदमी मान जाए न तो, सच कहती हूँ
आधी समस्याएं तो यूँ ही छू हो जाएं। आदमी सब कुछ ठीक करने की सोचता है और
करता भी है मगर सारी योजनाएं धरी की धरी रह जाती है। अब तुम्हीं सोचो खाना बने
चार जनों का और परोसते समय आ जाएं दस जने। क्या हो? मचे न हड़कम्प। फिर
एक दिन की बात हो तो छोड़ो मगर यहाँ तो रोज ही यही किस्सा है।
खरगोश: दीदी, तभी तो आदमी “छोटा परिवार-सुखी परिवार” का जाप कर रहा है। इसके फायदे
भी हैं। थोड़े से धन में परिवार का खर्च चल जाए। बच्चों की पढ़ाई, सेहत का ख्याल
सिरदर्दी न करे। कम लोग होंगे तो सरकार भी अच्छी तरह मदद कर सकेगी। धरती
माई भी अच्छी तरह हम सबको पाल सकेगी।
उल्लू: शोर की तरफ तो आप लोगों का ध्यान ही नहीं गया, भाईयों। मैं तो तरह-तरह की
चीखती-चिल्लाती आवाजों से काँप जाता हूँ। शहर तो मैंने एक अरसा पहले ही छोड़
दिया..., अब तो मगर गाँवों का भी राम ही मालिक है। कोई बीमार हो, कोई पढ़ता हो
तो कोई जरूरी काम मगर किसी को दूसरे की क्या चिंता। लाउडस्पीकर पर कीर्तन,
अजान, फिल्मी गाने सब चालू रहते हैं। विदेशियों की नकल का असर पहले शहरों
को ले डूबा, अब ये गाँवों को मटियामेट करेगा। मेरी समझ नहीं आता इस कान
फाड़ते हल्ले से बचकर मैं अब कहाँ जाऊँ।
बन्दर: अरे उल्लू भाई, आपको काहे की चिंता। थोड़े दिन और यही हाल रहा तो हर शाख
पर  उल्लू ही बोलेंगे।
उल्लू: काहे हंसी करते हो, भाई मेरे। वो तो कहावत वाली बात है। अगर धरती माँ न रही तो
हमारी क्या बिसात।
मुखिया: (शेर सिंह) बन्दर बेटा, ऐसा बात नहीं करते। उल्लू तुम इसकी बात का बुरा न मानना।
वैसे आज आप लोगों ने बहुत अच्छे सुझाव दिए। कालू कौव्वे जी आपने सब लिखा तो
है न? चलिए हम सब चल कर आदमी के कान में जरा जोर से जा कर उसे चेताएं ।
कालू कौव्वा: मुखिया जी अगर आप कहें तो जो मैंने लिखा है उसकी मोटी-मोटी बातें पढ़कर सुना दूँ।
मुखिया: (शेर सिंह) अरे भाई, शुभ काम में देरी कैसी?
कालू कौव्वा: तो ध्यान से सुनिए ...
सबसे पहले और सबसे जरूरी बात - आदमी अपनी आबादी कम करे। दूसरी बात -
जरूरत के मुताबिक हर चीज का इस्तेमाल। साथ ही बेवजह जरूरत भी न बढ़ाना।
तीसरी बात - विकास की योजना बने मगर आँख-कान खोलकर। चौथी बात - पेड़ों
को हर जगह - मंदिर, कुंओं, बंजर जमीन, कारखानों, उद्योगों, घनी बस्तियों , खेतों के
आसपास बड़ी संख्या में लगाकर देखभाल करें। पाँचवी बात - नदियों कुओं, तालाबों
में गंदगी को जाने से रोकें। कुछ और जरूरी बातें जैसे - घर के आसपास
साफ-सफाई, शोर कम से कम करना, हवा को साफ रखना, गाँव के लोगों को गाँवों में
रोजगार व दूसरी सुविधाएं देना, कारखानों, उद्योगों को बस्तियों से दूर लगाना,
पशु-पक्षियों की रक्षा करना।
मैना: अरे वाह, कालू जी आपने तो कमाल कर दिया। हम लोगों के मुँह तो जो आया सो
कह दिया। आपने तो सार-सार को खूब पकड़ा।
कालू कौव्वा: मैना बहन, जब आदमी भी सुने, तब है।
हाथी दादा: अरे क्यों नहीं सुनेगा। इस सबमें उसका भी तो भला है। अरे वो देखा, ढेर सारे आदमी
यहीं आ रहे हैं। चलो यहीं से श्री गणेश करें।
आदमियों की भीड़ पशु-पक्षियों के सामने आकर रूकती है।
एक आदमी: (जानवरों से) हम आपसे कुछ कहने आए हैं।
मुखिया: (शेर सिंह) मगर आप...। हम तो आपसे खुद ही कुछ कहना चाहते थे। ये सारे लोग
इसलिए ही यहाँ इकट्ठा हुए थे। कालू कव्वे जी ने हमारी बातें लिखकर रखी हैं। आप
पढ़ लें।
कालू कौव्वा: (आदमी से) - लीजिए, पढ़ लें। मगर भगवान के लिए हमारी बातों पर ध्यान अवश्य
दें वर्ना, अनर्थ हो जायेगा।
आदमी: (कागज लेते हुए) - ऐसी कौन सी बात है? (कागज पढ़ने के बाद) अरे! यह
तो सचमुच अनर्थ वाली बात है। लेकिन आश्चर्य है यही बात तो हम आप से कहने
आए थे।
पेड़: हमसे? भला हम इस बारें में क्या कर सकते हैं। हमसे तो जितना भी बनता है आपकी,
मदद ही करते हैं। आप ही हम पर और धरती माँ पर अत्याचार करते रहे हो।
आदमी: यही कहने तो हम आए हैं। हमने आप सभी लोगों और माँ धरती पर बहुत जुल्म किए
हैं। आपने तो जितना बन पड़ा मदद ही की। हम लोग ही कड़वी सच्चाई से मुँह फेरे रहे।
आज अब हम अपनी ही लगायी आग में जलने लगे हैं तब होश आया है। खैर, हमें
उम्मीद है आप लोग हमें अब भी माफ कर दोगे।
मुखिया: (शेर सिंह) क्यों नहीं, क्यों नहीं। सुबह का भूला शाम को घर आ जाए तो उसे भूला
नहीं कहते। आज तो घी के दिए जलाने का दिन है। धरती माँ आज फूली न समाती
होगी। कोयल बहन, क्यों न इस बसन्ती हो गए मौसम में अपना सुर मिला दो।
(सभी जोर से यही दोहराते हैं।)
कोयल: जैसी आप सबकी इच्छा। (गाती है)
भोर भई, जागा रे इन्सा,
धरती के रूठे भाग जगाने, देखो जागा से इन्सा।
दुख की, पीड़ा की काली रात गयी,
पूरब से देखो फूटी है लाली।
भोर भई, जागा रे इन्सा...

1 comment:

  1. अतिसुन्दर रचना !

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