Monday, 15 December 2014

278- सेवक और स्वामी








प्रतिदिन की तरह आज भी प्रायः पहली भोर की किरणों के निकलने से कुछ समय पूर्व जब राम
शय्यागृह से बाहर निकल कर आए तो देखते हैं - सेवक हनुमान पूर्ण श्रद्धा के साथ बाहर प्रांगण में
उनकी चरण पादुकाएं अपने उत्तरीय से स्वच्छ करते हुए “श्री राम जय राम“, श्री राम जय राम“
गुनगुनाते मिले। प्रभु उन्हें देख मुस्कुराए और मन ही मन उनकी सेवा भावना से अभिभूत हो उठे।
राम के पदचाप से हनुमान चैकन्ने हो उठे थे और पादुकाएं लेकर उनके सम्मुख पहुँच कर सर्वप्रथम
साष्टांग प्रणाम किया फिर पादुकाएं अपने हाथ से पहनाने लगे। श्री राम यूँ तो रोज देखते ही आ रहे
थे, जब से पवनपुत्र ब्राह्मण के वेश में प्रथम बार मिले थे तब से अब तक उनकी सेवा,उत्साह और
लगन से की। हनुमान में कितना निश्छल समर्पण भाव है वह उनसे छिपा तो था नहीं पर आज पूछ
ही बैठे - महावीर, तुम इतनी सजगता और सरलता से मेरी प्रतिदिन सेवा करते हो, मुझे स्नान कराते
हो, विभिन्न सुगन्धित द्रव्यों से मेरे शरीर को सुवासित करते हो, नए से नए, कीमती से कीमती
वस्त्राभूषण चुन कर लाते हो, मुझे आदरपूर्वक बिना किसी त्रुटि के पहनाते हो, संवारते हो।
राजभवन/प्रासाद में भी मेरे कार्यों/आदेशों को दौड़-दौड़ का पूरा करने में अग्रणीय रहते हो और
रात्रि जब तक मैं श्यनागार में विश्राम हेतु चला नहीं जाता तुम कुशलतापूर्वक मेरे सभी कार्यों में 
सहायक होते हो, तुम्हें अपनी भी सुध-बुध नहीं रहती। जरा अपना भी कुछ श्रृंगार आदि नहीं तो सुंदर
वस्त्रादि ही धारण कर लिया करो। क्या तुम्हारे लिए यहाँ कुछ कमी है? राम ने बड़े प्रेमपूर्वक पूछा।
कहाँ महाराज-ऐसा कहाँ? आपके रहते मेरे लिए किस सुख की कमी हो सकती है? आपके दिए सेवक,
आपके दिए सुंदर वस्त्राभूषण उन सबसे तो आपके द्वारा प्रदत्त इस सेवक का प्रासाद अटा पड़ा है,
वह अन्यत्र कहाँ? पर हनुमान तुम मुझे यह सब क्यों धारण कराते हो? राम ने हलके स्वर में हनुमान से जानना चाहा।
अरे प्रभु आप तो हमारे स्वामी हैं। अवधपुरी के राजा ही नहीं समस्त त्रिलोकों के, चराचर जगत के
अनवरत नाथ हैं। हनुमान स्वभावतः अपने प्रभु की प्रशंसा में अनवरत उद्गार व्यक्त करते जा रहे थे
तो बीच में टोक कर श्रीराम बोले - तो त्रिलोकेश्वर के स्वामी का सेवक  ऐसी साधारण सी वेशभूषा वाला
होगा? क्या मेरी हंसी करवाओगे? नहीं, प्रभु नहीं, ऐसा तो स्वप्न में भी नहीं सोचता पर क्या करूँ सत्य
कहता हूँ, सीता माता की सौगंध मुझे आपके अतिरिक्त और किसी बात का होश नहीं रहता। हर समय
आपका ही स्मरण, चिन्तन, मनन। मन में सदैव यही भाव रहता है कि क्या करूं जिससे आपको और
उल्लासित, आनन्दित कर सकूँ। सत्य कहता हूँ प्रभु रंच मात्र भी और कुछ नहीं सूझता - कहते-कहते-कहते
हनुमान का कंठ अवरूद्ध हो गया। मर्यादा पुरूपोत्तम राम, करूणासिंधु राम अपने प्रिय भक्त की इस
वेदना से अपने की करूणा सागर में गहरे डूबते ही चले गए और हनुमान के भक्तिभाव से आहृलादित
हो झपट कर उनके अपने गले से लगा लिया। भक्त और भगवान का यह अप्रतिम मिलन रोम-रोम को
पुलिकित कर गया। इसी भाव में, हनुमान की भक्ति व सेवा की भावना से अभिभूत प्रभु के कोमल बचन
झंकृत हो उठे। हे हनुमान तुम भक्तों के शिरोमणि हो, तुम सेवा भावना की अद्भुत अवर्णनीय पराकाष्ठा
हो तुम्हारे जैसे उच्चतम प्रज्ञासंपन्न, गुणवानों में श्रेष्ठतम व्यक्ति को अपनी सेवा में रखकर मैं स्वयं को
गौरवान्वित महसू करता हूँ। इससे अधिक मैं क्या कहूँ हनुमान? तुम्हारा दूसरा उपमान कहाँ से लाऊँ,
ऐसा तो अद्वितीय है, एक ही है और वो हो तुम स्वयं।
अतः जब भी कोई तुम्हारी भक्ति स्नेह से, पूर्ण निष्ठा से करेगा तो उसको मेरी भक्ति के तुल्य वांछित
कृपा का आधार मिलेगा और इसमें कोई संदेह नहीं कि वह व्यक्ति इस संसार सागर से पार हो जाएगा।
“नहीं स्वामी नहीं”, हनुमान चीखे जैसे सैकड़ों हजारों बिच्छुओं ने एक साथ डंक मार दिया हो - इस
सेवक को सेवक ही रहने दें प्रभु - घरघराते रूधे कंठ से हनुमान बोले। नहीं ये मेरा आदेश है, तुम्हारे
स्वामी का आदेश है। अब क्या कहते हनुमान अवाक् थे, पर सरस्वती को तो उन पर वरदहस्त था, सो
बोले जैसे स्वामी की आज्ञा पर मैं सेवक हूँ तो सेवक का ही काम सुहाता है-सो ऐसा करें जो भी आपकी
या आपके इस तुच्छ सेवक की भक्ति करेगा उसे मैं अपने आराध्य देव के श्री चरणाश्रित कर दूँगा तब
उसकी हर प्रकार से क्षत्र मात्र में मुक्ति हो जाएगी। प्रभु भक्त की इस तीक्ष्ण बुद्धि के आगे नतमस्तक
हो स्मित हास्य के साथ बोल पड़े - साधू, साधू। ऐसा ही हो, ऐसा ही हो।
- नलिन पाण्डे ‘तारकेश’

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