Wednesday, 17 December 2014

280 - श्रीभगवद्गीता भक्ति योग अध्याय -12







 
श्री गणेशाय नमः 
अर्जुन बोले योगेश्वर श्री कृष्ण से,प्रभु कौन है योगवेत्ता इन दोनों में
सगुन रूप जो है एक भजता,या निर्गुण रूप जो ध्याये अपने मन में। 1

प्रभु बोले हे अर्जुन मुझको प्रिय भक्त वही जो नित ध्याता है मुझको 
अतिशय श्रद्धा से सगुन रूप को मेरे,साधे अपने तन-मन को। 2  

लेकिन जो वश में कर इंद्री को अपनी,गहरे चित्त को स्थिर है करता 
मन-बुद्धि परे,सर्वत्र व्याप्त अकथनीय रूप को मेरे नित्य ही है भजता।3 

निर्गुण साधक सारी सृष्टि के कण-कण के हित में,सदा-सदा ही रहता 
 ऐसा न्यारा भक्त जो सबमें समभाव है रखता,वो मुझको ही है पाता । 4

यद्यपि ऐसा साधक भक्त जो मेरा,निर्गुण,निराकार स्वरुप है ध्याता
उसका देहातीत हो कर मुझको पाना,दुःख पा कर ही हो पाता। 5

जो नर कर्मों को सारे,अर्पित कर मुझको हैं भजते
भक्ति भाव में विह्वल हो,ध्यान लगा मुझको हैं पूजते। 6

भक्तों का ऐसे में अपने,बिना जरा भी विलम्ब किये
भवसागर से करने उद्धार,तत्पर सारे कर्म किये। 7

अर्जुन मुझमें तू मन को लगा ले,मुझमें ही तू बुद्धि लगा
फिर न करना जरा भी संशय,मुझमें ही तू निवास करेगा। 8

यदि धनञ्जय नहीं समर्थ है,चित्त स्थिर लगाने में
बार-बार स्मरण कर मेरा,मुझको ही तू पाने में। 9

अभ्यास योग यदि न हो संभव,कर्म किया कर मेरे लिए
सिद्धि प्राप्त करेगा तब भी,जो कर्म करे तू मेरे लिए। 10

कर्म भी तुझसे संभव न हो,करना कुछ भी जब मेरे लिए
तो कर्मों का फलत्याग तू कर दे,स्वआत्म को वश में किए। 11

अभ्यास से क्योकि ज्ञान श्रेष्ठ है और ज्ञान से ध्यान को करना
लेकिन बेहतर तत्काल शांति हित,कर्मफल का त्याग तू करना। 12

सभी तत्व में द्वेष रहित जो,मैत्र भाव से भरा हुआ करुणा में डूबा रहता हो
ममता,अहंकार से मुक्त और दुःख सुख में सम,साधक क्षमा भाव से युक्त हो। 13

ऐसा साधक जो हो संतुष्ट सदा,मन - इन्द्रिय संग वश में अपनी देह किये हो
मुझको प्रिय भक्त वही,मन बुद्धि अर्पित कर जो,दृढ निश्चययुक्त मुझमें हो। 14

साधक न घबराता किसी से और न जीव डरे कोई भी उससे
हर्ष,अमर्ष,भय,व्यकुलता रहित जो,प्रेम है मुझको उससे। 15

शुचितापूर्ण,दक्ष जो साधक इच्छा,पक्षपात व दुःख से मुक्त सदा ही रहता
सब कर्मों का शुरू से त्यागी,भक्त मेरा वो मुझको प्रिय सदा-सदा ही रहता। 16

जो न होता कभी भी हर्षित,न करता है कभी द्वेष किसी से
शोक नहीं होता है उसको,और प्रीत नहीं किसी भी इच्छा से। 17

शत्रु-मित्र,मान-अपमान सब में रहता,सदा-सदा वो एक समान
जाड़ा-गर्मी,सुख-दुःख,आसक्ति रहित,ऐसा उसका सच्चा ज्ञान। 18

निंदा-बढ़ाई उसको रहती एक समान,मितभाषी वो जो है संतोष प्रधान
घर की माया नहीं सताए,स्थिरमति का प्यारा मुझको भक्तिपूर्ण इंसान।19

धर्मयुक्त उपरोक्त अमिय का जो भी जन सदा रसपान हैं करते
ऐसे श्रद्धानवत मेरी खोज को तत्पर,मुझको अतिप्रिय हैं लगते।20

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासुपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्री कृष्णार्जुन संवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोअध्यायः श्रीकृष्ण चरणम् सादर समर्पयामि। जय श्रीकृष्ण।


हरे राम हरे राम,राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण,कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।


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