Friday 5 December 2014

273:कहानी -प्लास्टिक सर्जरी



उसने देखा उसका  दिल बुझा-बुझा सा है और पूरे शरीर पर उदासी का नशा छा रहा है। बारीक-बारीक
कोशिकाएं पेड़ को खींच लेती है जैसे पानी को और फिर पहुंचा देती हैं उसे, पूरे पेड़ तक, ठीक वैसे ही।

“तुम उदास क्यों हो मेरे दिल?” “उसने जानना चाहा दिल से। जैसे वह अनजान हो दिल में उठने वाले
दुख से।
उसने पत्थर मारा था, झील में। जवाब में दिखी एक लम्बी सुरंग जो तुरंत ही लोप हो गई थी। दरवाजे
बंद जो कर दिए गए थे, सुरंग के। लहरों ने इजाजत नहीं दी “बैन सवाल” के जवाब देने की।
लेकिन उसे जानना तो होगा ही। आज नही तो कल, कल नही तो परसों... कभी तो... फिर अभी क्यों
नहीं।
वह रो पड़ा सुबुक... सुबुक दिल, पिघल गया। दिल पिघल गया झील का पानी नमकीन हो जाएगा
इस डर से उसने उसको रास्ता दिया।
वह सुरंग से नीचे उतरा। चलते गया... चलते गया...। आगे उसे रूकना पड़ा। देखा तो वह एक कमरे
में था। कमरे के ठीक बीचोंबीच एक आदमकद “आईना”। आईना वह चौंका । “हाँ आईना, तुम्हें आइने
की जरूरत है डर लगता है ना तुम्हें इससे कोई रहस्यमयी आवाज गूँजी।
आईना? डर? क्या मुझे अपने आप से डर लगता है “आईने से” उसने जानना चाहा था। लेकिन कुछ
देर बाद सोचकर वह बोला, बोला क्या बल्कि चीखा, नहीं नहीं... सब झूठ है, मैं क्यों डरने लगा, भला
अपने आप से, शायद अपने आप को दिलासा देने के लिए व्यर्थ सा तर्क दिया उसने।
हा... हा... हा..., ठहाका गूँजा, भाव था मुझे बेवकूफ बनाएगा।
ठहाके की गूँज शांत हुयी तो रहस्मयी आवाज ने थोड़ा रूक कर फिर कहा, “अच्छा, तो यह बताओ हर
रोज रात को तुम एक ही सपना क्यों देखते हो। पेड़ हो गए हो... “जड़”, तुम्हारे चेहरे पर झाड़, झंकाड़
ऊग आए हैं, छाया देना चाह रहे हो, झुक कर...। गले से गले लगा कर...। लेकिन फिर डर जाते हो इस
कल्पना से कि किसी को गले लगाने पर उसका चेहरा लहूलुहान हो जाएगा और इस से सिहर कर हर
सुबह तुम्हारी नींद टूट जाती है।
पसीने से नहा गया वो। गले में कुछ अटक गया हो ऐसे हाथ से उसे मलते हुए खंखारते हुए वो
कंपकपाते हुए बोला... लेकिन, सपना तो सपना है...। हर रोज, एक जैसा...। मैं खुद...। सपना...।
सपना...।
आवाज ने उसे संबोधित करते हुए कहा, “देखो” आज तक तो खूब पर्दा डालते रहे हो अपने आप
के शैतान पर और क्या आज भी... 27 वर्षों के बाद भी... अपने से ही डर के भागते रहोगे।“;
“तुमने घूस देकर मुंह बंद करवा दिया जिससे वह लोगों के सामने तुम्हारा पर्दाफाश न कर दें कि कितने
कमजोर आदमी हो तुम।“
“वह तो कहीं अच्छा हुआ कि अंगुलियों पर तुम्हारा बस नहीं चला। हालांकि जब अंगुलियों ने थोड़ा सा
भी इशारा दिया तुम्हारे बारे में, तुम्हारे अंदरूनी पके हुए फोडे़ के बारे में चुपचाप उसे कोरे सफेद
कागजों की रूई में थोड़ा सा निकाल के, तो तुमने लोगों से कहा कि यह मवाद तुमने दूसरों के फोड़ों
को फोड़ने से निकाला है, जिन्दगी बचाने के लिए उनकी।
“प्रशंसा मिली थी, थोड़े पुरस्कार भी। लेकिन तुम अंगुलियों से रूठे रहे, जो तुम्हारी जिंदगी के लिए
संघर्ष कर रही थी, जहरीले मवाद को पूरे शरीर में फैलने से रोकने के लिए।“ और तो और तुम डर गए
पड़ोस में रहने वाली लड़की से भी अपने प्रेम का इजहार करने में, जबकि तुम उसे चाहते रहे
हो...। माना तुम्हारे चेहरे को बदसूरत करते, पांच साल की उम्र में हुए चेचक के निशान अभी भी नहीं
मिटे हैं और उसी दौरान एक पांव में हुए पोलियो ने तुम्हें विकलांग बना दिया। लेकिन क्या इतने से
सब कुछ खत्म हो जाता है।  तुम्हारी अन्य योग्यताएं, तुम्हारे अन्य गुण, इस सबसे बेमानी हो जाते हैं?
यह ठीक है कि तुम्हारे मां-बाप ने भी तुमसे एक दूरी ही रखी। कुछ सहपाठियों ने तुम्हें अक्सर
चिढ़ाया भी-“चंबल का डाकू“ “लंगड़दीन... और भी न जाने क्या-क्या पर तुमने उस सबको ही क्यों
समेटा? क्यों कर उनकी बातों को इतनी गंभीरता से लिया।
मंगलू तुम्हारे घर का नौकर, चन्दू तुम्हारा पक्का दोस्त, रामनाथ जी  - मास्टरसाहब जैसे न जाने
कितने लोगों ने तुम्हें सराहा, उत्साहित किया। तुम्हारी हार जीत को अपनी हार जीत माना पर फिर भी
तुम हीन भावना से मुक्त नहीं हो सके। क्यों? आखिर उन लोगों से भी तुम सामान्य सा व्यवहार क्यों
नही कर सके?
अब नीरजा, अपनी प्रेमिमा के साथ ही अपने संबंधों को लो। क्या उसका व्यवहार साफ नही बताता कि
उसे तुमसे प्यार है और तुम तो खैर अब से इस मोहल्ले में आए हो उस पर मर मिटे हो पर प्यार को
अभिव्यक्त करने का साहस तुम कभी नहीं जुटा पाए। उसके माँ-बाप जो खुले दिमाग के जिन्दादिल
इंसान हैं पर भी तुमने अपने प्यार का खुलासा नहीं किया। आखिर जिन्दगी से हटकर भागने से, अपनी
इच्छाओं का अपने संसार का गला घोंट देने से तुम्हें क्या मिलता है? और अधिक “हीनता“, दुर्बलता,।
यही न। लेकिन, जब तक तुम कहने का, खुल कर अपने आप को व्यक्त कर पाने का साहस नहीं जुटा
पाते हो तब तक इच्छाओं को पालने का, उनके फलीभूत न हो पाने पर रोने या खुद को कोसने का
औचित्य...।
खट... खट... खट खट.... कोई सीढ़ीयां चढ़कर आ रहा है, वह चैंका, कहाँ? किस लोक में फिर रहा था
वो अब तक, स्वप्न में...? हकीकत में...? कोई निर्णय नहीं ले सका कि खट... खट... आने वाला चला भी
जा रहा है।
लपक कर उसने दरवाजा खोला, देखा नीचे वालों का 8-9 साल का लड़का तेजी से दौड़ता हुआ उस
घर के अंदर चला गया, जिसमें उसकी “वो” रहती है। कुछ सोचे इससे पहले नजर पड़ी उसकी
लिफाफे में। सुंदर बड़े अक्षरों में हरे स्केच से जिसमें उसका नाम लिखा था। हैरान परेशान...। चाहता
था लिफाफा फाड़ कर चिट्ठी निकाले रोज की तरह। लेकिन नहीं वो तो इत्मीनान से बैठ गया
धीरे-धीरे लिफाफे खोलने के लिए, और लिफाफे से उसने चिट्ठी निकाली, मुड़े हुए पन्नों को खोला;
कांपते हाथों से बहकती सांसों से, लेकिन नहीं, अब वह नहीं रोक पाया अपने आप को, एक सांस में पूरी
चिट्ठी पढ़ गया।
“प्रिय... रोज दिखते हैं, कभी खुली आँखों से... कभी...। माता-पिता ने स्वयं पूछा, आपके लिए, मेरी राय
कैसी है...। पिता जी आप से मिलेंगे, नहीं जानती, आपका जवाब क्या होगा। लेकिन मैं और किसी को
नहीं आने दूंगी अपने दिल के...।
उसे लगा डाक्टर कह रहा है... मैं आपके चेहरे की “प्लास्टिक सर्जरी“ कर दूँगा...। वह खिलखिला कर
हंस पड़ा। स्वछंद हंसी। निर्मल हंसी, हीन भावना से मुक्त हंसी।


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