Tuesday, 30 December 2014

290 - नववर्ष स्वागत2015




नववर्ष स्वागत आओ सभी
उल्लास से मिल-जुल करें।
जो हुईं त्रुटियाँ गतवर्ष हमसे
उनसे तौबा इस वर्ष हम करें।
माँ वसुंधरा के लाल हम सब
राग-द्वेष,छल-कपट काहे करें।
प्यार के एकसूत्र बांध सबको
विकास-पथ,दृढ़ प्रशस्त करें।
माँ-बेटी,बहन-पत्नी या हो सखी
सम्मान नारी का हम सब करें।
प्रेम-सौहार्द,दया-शुचिता बीज से
फसल भविष्य की नई तैयार करें।

Monday, 29 December 2014

289 - साईं के ग्यारह वचन

                                1
शिरडी की पावन भूमि पर पैर रखता है जब भी कोई।
ततछन ही मिट जाती हैं चिंताएं उसकी जो हों कोई।। 
2
समाधि की सीढ़ियां जब चढ़ेगा भक्त कोई भी।
मिटेंगी दुःख,दुर्भाग्य की रेखाएं उसकी सभी।।  
3
देह छोड़ लगता अदृश्य सा हो गया हूँ  मैं अभी। 
भक्त रक्षार्थ लेकिन प्रगट हो जाऊंगा मैं कहीं भी।। 
4
हर मनोकामना पूर्ण करेगी यह समाधि मेरी। 
चलेगी-फिरेगी,दौड़ेगी भक्त रक्खो श्रद्धा-सबूरी।।
5
मैं तो नित्य जीवित हूँ तुम्हारे ही कल्याण के लिए 
निज स्वभाव अनरूप तेरी आस पूरी करने के लिए।
6
कभी शरण आ के जो मांगे मुझसे तू कुछ भी,कहीं भी 
करता हूँ हर आस पूरी,न हो तो मिलाओ उसे मुझे भी।।
7
भगत की भावना की कदर करता रहा हूँ सदा ही 
तभी तो उसी के अनुरूप ढल जाता हूँ खुद से ही।  
8
तेरा हर भार सदा से रहा है मुझ पर ओ पगले 
वचन सत्य मेरा,भली-भांति इसको समझ ले।।  
9
आओ आकर अपनी-अपनी झोली तुम सब भर लो 
जैसा फल चाहो आकर वैसा तुम मुझसे नकद ले लो।। 
10
तन-मन-वचन से करते जो हैं समर्पण मुझमें 
उनका ऋण सदा ही सदा बना रहता है मुझमें।। 
11
ऐसे भगत मुझे अतिप्रिय,सदा उर में वास हैं करते 
मन-मंदिर में जिनके और नहीं कोई और हैं बसते। 
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Sunday, 28 December 2014

288 - मैं तुम्हारा,तुम हो मेरे




माया जब तुम्हारी ही राम
जगत में सर्वत्र व्याप्त है
और यह जगत भी जब
मात्र तेरा ही भ्रू विलास है
फिर बता क्यों भला
व्यापता मुझे ये संताप है।
मैं तो चरण-शरण हूँ
एक बस तेरी ही भगवान
और तुम हो वचनबद्ध
करने को मेरा उद्धार।
फिर विलम्ब क्यों इतना
समझ आता नहीं नाथ है।
फिर समझ से भी क्या वास्ता
क्यों करू, इसकी परवाह
जब एक बार,बस एक बार
कृपादृष्टि से तुम लो निहार।
और मुझे बस इतना सा
दिला दो तुम यह एहसास
कि मैं तुम्हारा,तुम हो मेरे
हर घडी-हर हाल में साथ। 

Thursday, 25 December 2014

287 - क्यों है कृपा देरी



मैं बेचैन हूँ क्यों आज इतना
मुझे तो मालूम है पर
मुझसे भी तो ज्यादा बेहतर
तुम्हें मालूम होगा साईं।
पर तुम तो चुपचाप,मौन हो
मेरी व्यथा-कथा जानते भी
अनजान बन बोलते नहीं हो।
और न भी कहो तो क्या?
मुझे तो अपने स्वार्थ से है वास्ता
मैं तो चाहता हूँ बस इतना
की तुम्हें जब मालूम है सब
तो फिर क्यों है कृपा देरी
करो बस मनोकामना पूरी
 अन्यथा  मेरे भरोसे का
जो जितना अब तक बना है
वो कहाँ रह पायेगा,तुम पर
और वो ही नहीं रहा तो
मेरा जीवन कहाँ चल पायेगा।   

Wednesday, 24 December 2014

286 - मैं क्या जानता नाम तुम्हारा



होंठों को जुम्बिश देकर तुमने
 नाम मेरा जो पुकार लिया
मुझ प्यासे पथिक को तुमने
मरुथल में अमृत पिला दिया।

मैं क्या जानता नाम तुम्हारा
जबकि खुद को ही नहीं पहचानता
तुमने बेवज़ह ही लेकिन मुझको
अपना कृपापात्र बना लिया।

जीवन में आयीं काली रात कई
एक बार नहीं कई बार घनी
पर तुमने सदा रवि बनके
तम से मुझे उबार लिया।

क्या कहूँ?कैसे कहूँ?कितना कहूँ?
हर बार सोच-सोच थक जाता हूँ
पर तुमने अब बना के अपना
हर प्रश्न चिह्न मिटा दिया। 

Monday, 22 December 2014

285- उल्लास का पर्व-क्रिसमस




जीवन के प्रतिदिन के संघर्षों की कठोर भूमि में सुख,शांति,प्रेम के फूल खिलाने के लिए मानव ने सृष्टि के प्रारम्भ से अब तक अनेक प्रयत्न किये हैं। शोक,चिंता दुःख को भुला कर होठों पर हंसी गुनगुनाई जा सके इसके लिए ही संभवतः त्योहारों की परंपरा ने जन्म लिया होगा। जहाँ तक भारत वर्ष की बात है तो यहाँ तो प्रायः हर दिन ही कोई न कोई त्यौहार,पर्व,व्रत,धार्मिक कृत्य मनाये जाते रहे हैं। वहीँ अपनी "विश्व-कुटुंब" की उदार भावना के चलते दूसरे अन्य देशों के त्यौहारों को भी इसने अत्यंत आत्मीयता से आत्मसात कर लिया है। अन्य देशों के नागरिक जो अनेक पीढ़ियों से पूर्णतः भारतीय हो यहीं रहने लगे हैं के साथ यह देश उनके त्योहारों को पूरे जोश,उत्साह और आदर से मनाता है। ऐसा ही एक रंग रंगीला पर्व है -क्रिसमस जो कि 25 दिसंबर को ईसा मसीह के जन्म दिन के तौर पर मनाया जाता है।इसके प्राचीन इतिहास में यदि हम जाएँ तो देखते हैं कि 25 दिसंबर,रोम निवासी देव पूजकों हेतु पवित्र दिन था और इस दिन गुलाम अपने स्वामी के साथ गुलाम सा व्यवहार कर सकते थे। पहले के पारम्परिक यूरोपियन लोग इस ठण्ड भरे दिनों में सूर्य को बुलाने हेतु विशेष अनुष्ठान करते थे। दरसल उनका मानना था कि यह मौसम बुरी आत्माओं,भूतों,चुड़ेलों का है। एस्केंडिनवियन्स निवासी तो सूर्य की खोज में अपने कुछ दल भी भेजते थे और सूर्य को देखने की ख़ुशी में यूल के लट्ठों को जला कर बड़े भोज का आयोजन भी करते थे। कुछ लोग बसंत के आगमन की आशा में शंकु(कोनिफेरस ) वृक्ष की शाखाओं में सेब बाँध कर अपना उल्लास व्यक्त करते थे। रोमन लोग सैटनेर्लिया पर्व को मध्य दिसंबर से 1 जनवरी तक भोज के आयोजन और उपहारों के आदान-प्रदान द्वारा  मानते थे। ऐसा विश्वास किया जाता है कि क्रिसमस त्योहारों का आरम्भ 98 ईस्वी से हुआ था। यद्यपि इसके 39 वर्ष पश्चात रोम के बिशप ने क्रिसमस संध्या पर इस परंपरा की नीव डाली। जूलियस प्रथम ने ,जो रोम के बिशप थे इसके 2 शताब्दी बाद से क्रिसमस मानाने के लिए 25 दिसंबर की तिथि  सुनिश्चित की। 
क्रिसमस की मुख्य थीम यद्यपि पूरे विश्व में एक जैसी होती है तथापि प्रत्येक देश में कुछ रिवाजों को मानाने में भिन्नता देखने में आती है। जैसे बेल्जियम में 6 दिसंबर को संत निकोलस दिवस मानते हुए लोग संत निकोलस के रूप में बच्चों को उपहार,भेंट देते है। ब्रेकफास्ट में बेबी जीसस के रूप आकार  वाली मीठी ब्रेड "कोगोनो"पेश की जाती है। ब्राजील में फादर क्रिसमस "पापाई नोईल "के रूप में जाने जाते हैं। क्रिसमस संध्या पर चिकन,तुर्की,सूखा मांस,चावल,सलाद,सूअर का मांस,सूखे व् ताजे फल,बीयर के साथ जश्न मनाया जाता है। फ़िनलैंड में सांताक्लॉज के नाम हज़ारों चिट्ठियां आती हैं क्योंकि माना जाता है की सांता का निवास फ़िनलैंड का उत्तरी भाग था। यहीं पर एक थीम पार्क "क्रिसमस लैंड" भी निर्मित है। यहाँ के लोग क्रिसमस के तीन दिन घरों को खूब सुंदरता से सजाते हैं। दिन में "पीस ऑफ़ क्रिसमस" का रेडियो,टीवी में प्रसारण होता है। जर्मनी में बालक येशु के लिए लकड़ी की छोटी कुटिया बना कर रखी जाती है। अपने देश में चर्च और घरों में फूलों और बिजली की सजावट मंत्रमुग्ध कर देती है। दक्षिण भारत में मिट्टी  के दिए जला कर लोग उल्लास मानते हैं। मुंबई में इनकी तादाद भारी मात्र में होने से यहाँ काफी पहले से इसका गर्मजोशी से स्वागत शुरू हो जाता है। यूँ अब तो पूरे भारत में यह त्यौहार बिलकुल भारतीय अंदाज और उमंग के साथ मनाया जाता है। बच्चों के लिए तो यह विशेष पर्व है। सांताक्लॉज़ तो उनकी आँखों का तारा है और वे सांताक्लॉज के। घर का कोई भी बड़ा बुजुर्ग बच्चों के सिरहाने चुपचाप से गिफ्ट रखकर अपने लिए भी ख़ुशी का स्वागत करने से नहीं चूकना चाहता। 
इस दिन क्रिसमस ट्री को सजाने की भी मानयता है जिसके पीछे कथानक है की जब ईसामसीह का जन्म हुआ तो सबने कुछ न कुछ भेंट उन्हें दी। देवदारु का पेड़ उदास था की वह जगत के राजा को क्या उपहार दे ,उसके पास कुछ नहीं था। यह देख एक देवदूत को दया आ गयी और उसने इस पेड़ को तारों से खूब सजा कर ईसा को भेंट कर दिया। बालक ईसा इसको देख बहुत खुश हुए,तबसे यह परम्परा बनी हुई है। स्टार का इससे जुड़ने का एक कारण यह बताया जाता है की जब ईसा जन्मे थे तो एक अत्यंत चमकदार तारे ने पूर्वीय आकाश में प्रकट हो तीन ज्ञानियों का पथ प्रदर्शन किया था और तब उन्होंने ये निष्कर्ष निकाला की आज किसी एक दैवीय पुरुष का जन्म हुआ है। तभी से क्रिसमस पर्व पर विविध रंग बिरंगे तारों से सजावट का चलन शुरू हो गया। 
क्रिसमस का त्यौहार दरअसल प्रेम-करुणा को बांटने का त्यौहार है। ईसामसीह ने अपना सम्पूर्ण जीवन इंसानियत के लिए समर्पित कर दिया था। ऐसे करुणा-सागर,दूसरे के दुःख-दर्द से द्रवित हो जाने वाले इस महामानव का जन्मदिन समारोह हमें जरूरतमंद की मदद करना,उसकी निष्काम भाव से सेवा करना जैसे उच्च मानवीय गुणों को विकसित करने की सीख देता है। यदि हम इस त्यौहार के वास्तविक उद्देश्य को समझते हुए यह पर्व मनाएं तो न केवल पारस्परिक सौहार्द बढ़ेगा अपितु स्वस्थ समाज का भी गठन होगा। और यही हमारी भगवान ईसा मसीह को सच्ची श्रद्धांजलि भी होगी। आमीन !

Sunday, 21 December 2014

284 - अभिव्यक्ति का साहस



ढम-ढम, पॉ-पॉ,नगाड़ों और तुरही के सम्मिलित स्वरों ने सीता की  वैचारिक श्रृंखला को चरमरा कर भंग कर दिया। वह यथार्थ की कठोर चट्टान पर आ गिरी और तब उसे स्मरण हुआ कि वह अशोक वाटिका में अपने राम के संसर्ग का जो अनुभव कर रही थी वह झूठा था - मात्र एक दिवास्वप्न। वह तो अभी भी रावण की बंदिनी है और यह नगाड़ों-तुरही का आर्तनाद रावण के आने की घोषणा है। "रावण",उसका स्मरण आते ही सीता को मानो बिजली का नंगा तार छू गया। वह भय और क्रोधावेश दोनों का एक साथ ही अनुभव करते न जाने क्या कुछ बड़बड़ा उठी थी।
वह जानती थी रावण आते ही उससे क्या प्रश्न करेगा। इससे पूर्व दोनों बार जब वह आया है उसने वही प्रश्न दोहराया है कि "क्या वह उससे विवाह करेगी?"शायद वह चाहता है कि यदि सीधी उंगली से ही घी निकल जाता है तो जोर- जबरदस्ती से क्या लाभ ,उसने दोनों ही बार उसके प्रश्नों को अनसुना कर दिया है,मुँह खोलने की कुछ कोशिश ही नहीं की। लेकिन,संभवतः इनसे ही रावण के दुःसाहस को बढ़ावा मिल रहा है। कहीं उसे लग तो नहीं रहा की मेरी चुप्पी में सहमति का लक्षण छुपा हुआ है। नहीं,ऐसा नहीं होना चाहिए। उसके मौन का अभिप्राय ऐसा तो कतई नहीं है। वह तो मात्र इसलिए उसके प्रश्नों पर चुप्पी खींच लेती है क्योंकि यह प्रश्न उसे दुःख और वेदना के दलदल में ला खींचता है। वह जितना उससे बाहर आने की सोचती है और गहरे धसते चली जाती है। क्रोध और घृणा से उसका रोम-रोम जल उठता है। कहना वह बहुत कुछ चाहती है-अर्थपूर्ण शब्दों के समूह द्वारा न भी सही तो अर्थहीन स्वर लहरियों की मदद से ही सही,सभी दिशाओं में अपना आक्रोश भर देने को। लेकिन,ऐन वक्त पर कहाँ संभव हो पाता है यह सब। उसकी वाणी उस वक्त तो अवरुद्ध हो जाती है। तालू से चिपककर रह जाती है जीह्वा। 
आज लेकिन वह ऐसा कुछ भी नहीं होने देगी। सीता ने दृढ निश्चय करके अपने को पूर्णरूपेण तैयार कर लिया,उन परिस्थितियों के लिए जो क्षण भर में घटने वाली थीं। वो पूर्णतः निर्भीक और ऊँची वाणी में रावण को स्पष्ट कर देना चाह रही थी कि वह किसी भी हाल में उसकी अंकशयनी  बनने में रुचि नहीं लेती है। वह तो तन,मन,वचन सब प्रकार से राम के प्रेम में आकंठ डूबी है।राम के अतिरिक्त उसके हृदय में "प्रियतम" की कोई अन्य छवि न रही है न रहेगी। यदि रावण में राई-रत्ती का भी पुरुषत्व शेष है तो वह उसे लताड़ेगी। उसको सही दिशा में लाने का पुजोर यत्न करेगी। उसके मन की कलुषता को मांज कर निर्मल ह्रदय  बनाये  जाने हेतु प्रेरणास्रोत बनेगी। 
लेकिन यह सब तो उसके ख्याली पुलाव हैं। शठ की शठता का क्या और कैसा भरोसा। कहीं रावण पर इस सबकी उलटी प्रतिक्रिया न हो। वह उत्तेजित हो,क्रोधावेश में कहीं कोई दुःसाहस न कर बैठे। सीता एक  क्षण यह सोच कर किंकर्तव्यविमूढ हो गयी। तो इन सब परिस्थितियों में वह क्या करे?छोड़ दे सब कुछ नियति पर?घटनाक्रम जैसे घट रहा है उसे वैसे ही घटने दे?मूक हो चुप रह कर दर्शक बनी रहे ,बस इसलिए की अपनी असहमति या विरोध प्रकट करने के लिए बहुत अधिक जोर से चिल्लाना पड़ता है। विशेषतः तब और भी जब आपने चुपचाप ही सब कुछ सहना सीखा हो। "एक चुप हराये सौ "यह वाक्य घुट्टी में पिया हो। फिर चीखने-चिल्लाने से तो लोगों का ध्यान भी  आकृष्ट होता है। बहुधा तो लोगों को खेल-तमाशे सा आनंद आता है उस सब में। 
शांत समुद्र में बड़ी चट्टान गिर जाने से कोलाहल सा मच जाता है जैसे वैसा ही सब कुछ,क्या नहीं होगा उसके चीखने-चिल्लाने से। तो क्या वो शांत रहने दे समुद्र को,अपने मन में हज़ार ज्वार-भाटा छिपा कर,उठाने वाली उँगलियों से डर कर चुप्पी लगा ले अपने दर्द,अपनी पीड़ा को?लेकिन कब तक ?कब तक आखिर वह सहन कर सकेगी अपने शोषण को। क्यों नहीं वह अपनी असहमति को अपने अपने असंतोष को अन्याय के विरुद्ध स्वर दे पाती है। हो सकता है रावण उसको अपमानित कर दे,उसे यम के द्वार पर भी डाल दे लेकिन क्या इस भय से उसकी आवाज़ जो सम्पूर्ण मानवजाति के शोषण,अत्याचार के विरुद्ध उपजा आलोकपूर्ण,प्रतीकात्मक गान बन सकता है क्या दब जाना चाहिए? 
नहीं,कभी नहीं,सीता ने विचार-मंथन की लम्बी प्रक्रिया के बाद अपनी इस साहसपूर्ण अभिव्यक्ति को आत्मविश्वास से भरकर हवा में दोहराया। मानो वह सम्पूर्ण कायनात के वातावरण में,उसके कण-कण में यह सन्देश उन सब अपने साथियों तक पहुँचाने के लिए उतावली थी जो कहीं न कहीं ऐसी ही कुछ विषम परिस्थितियों के वज्रपात से शिथिल हो अन्मयस्क सी अचेत पड़ी थीं।फिलहाल उसके अपने आत्मविश्वास की गरजती सिंह सी दहाड़ के आगे इतना तो हुआ की अत्यंत समीप आ गए वाद्य-यंत्रो की चिंघाड़ती आवाज़ें स्तम्भित हो गयीं।मानो सीता के,एक स्त्री के अभूतपूर्व अप्रत्याशित निर्णय से उन्हें लकवा पड़ गया हो। 

Saturday, 20 December 2014

283 - किस मुहूर्त में करें कौन-सा काम



मुहूर्त का अर्थ है सही समय का चुनाव। किसी समय-विशेष में किया गया कोई कार्य शीघ्र सफल होता है तो कोई कार्य तरह-तरह के विघ्नों के कारण पूरा ही नहीं हो पाता! यहाँ प्रस्तुत है सही मुहूर्त चुनने की सरल विधि ----------------
व्यक्ति की कुंडली यह जानकारी देती है कि व्यक्ति अपने पूर्व जन्मों के कर्म के कारण वर्तमान जन्म में क्या कुछ भोग सकता है या यों कहें कि व्यक्ति शारीरिक, बौद्धिक, भौतिक या आध्यात्मिक क्षेत्र में कितनी ऊँचाई तक उठ सकता है।
मुहूर्त के सही समय के चुनाव द्वारा व्यक्ति अपने द्वारा भोगे जाने वाले
कर्मफल को उचित दिशा में प्रवाहमान कर सकता है। मुहूर्त सही समय के चुनाव द्वारा यह तो संभव नहीं है कि आप हर क्षेत्र में अधिकतम सुखदायक स्थिति को प्राप्त करें क्योंकि व्यक्ति को कुल मिलाकर कितनी दूरी या ऊँचाई प्राप्त करनी है या तो कुंडली या जन्म समय की ग्रहों की स्थिति द्वारा भली-भांति आंकलित किया जा सकता है तथापि जो कुछ भी आपकी कुंडली में है, उसे अधिकतम किस रूप में किस प्रकार के सही समय चुनाव द्वारा प्राप्त किया जा सकता है, मुहूर्त उसे इंगित करता है।
यदि हम किसी कुंडली में देखें कि व्यक्ति विशेष को ‘संतानसुख’ की संभावना न्यूनतम है तो मुहूर्त इस दिशा में हमारी कुछ हद तक सहायता अवश्य कर सकता है। पहले तो उस व्यक्ति हेतु उपयुक्त
स्त्री का चुनाव करना होगा, जिसका संतान भाव प्रबल योगकारक हो, दूसरा, विवाह मुहूर्त भी ऐसा हो जब संतानोत्पत्ति के कारण ग्रह अपनी शुभतादायक रश्मियां बिखेर रहे हों। इसी प्रकार से अन्य क्षेत्रों में भी मुहूर्त का चुनाव करके संबंधित भाव, ग्रह को सबल रखते हुए ऋणात्मक भावों को बौना बना देने का सफल प्रयास किया जा सकता है।
ज्योतिष में मुहूर्त का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत है और इस विषय पर अनेक स्वतंत्र ग्रंथों का निर्माण हुआहै। सही मुहूर्त के चुनाव में अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है क्योंकि हमें अपने कार्य एक
निश्चित सीमावधि में पूर्ण करने होते हैं और उस समय सभी बातें हमारे मनोनुकूल नहीं हो सकतीं।
मान लें कि हमें बृहृस्पति मेष राशि में चाहिए और वह मीन में भ्रमण कर रहा है तो उसके लिए हमें लगभग एक वर्ष रूकना होगा। कभी किसी कार्य को तो इतना रोका जा सकता है किंतु कुछ कार्यों में शीघ्रता अनिवार्य होती है अतः वहां कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर ही ध्यान देकर ‘अधिकतम शुभ समय’ का चुनाव मजबूरी होती है।
मुहूर्त के चुनाव में पंचांग की भूमिका सर्वोपरि होती है। ये पांच अंग हैं: 
1. तिथि (चंद्र दिन), 2. वार(सप्ताह का दिन जैसे सोमवार आदि), 3. नक्षत्र (तत्कालीन व जन्म नक्षत्र भी), 4. योग (चंद्र + सूर्य दिन), 5. करण (तिथि का आधा दिन)।
उपरोक्त पांच अंगों में भी तिथि नक्षत्र और वार विशेष महत्व के हैं।
मुहूर्त, जैसा कि पूर्व में कहा गया है, का सही चुनाव व्यापक अध्ययन चाहता है और निष्णात हाथों से ही यह सही रूप में प्रकट होता है। अतः यहां सामान्य जन की जानकारी के लिए उपयोगी ‘मुहूर्त’ के चुनाव की ही चर्चा उपयुक्त होगी।मुहूर्त में नक्षत्र का स्थान सबसे ऊपर है अतः सर्वप्रथम थोड़ी चर्चा नक्षत्रों के स्वभाव या प्रकृति पर:
अश्विनी, पुष्य, हस्त (अभिजित भी): नर्म नक्षत्र हैं। इनका चुनाव मनोरंजन के कार्य में, आभूषणों के धारण करने में, दवा के देने, औद्योगिक प्रतिष्ठानों के खोलने, खेल व यात्रा में उपयुक्त होता है।
भरणी, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभद्रा मघा: भयानक नक्षत्र हैं। इनका धोखेबाजी, जेल, अग्नि,घृणित कर्मों से संबंधित है।
कृतिका, विशाखा: मिश्रित नक्षत्र हैं और इनमें दैनिन्दन कार्यों को किया जा सकता है।
रोहणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तरभाद्रपद: स्थिर नक्षत्र हैं अतः इनका चुनाव ऐसे कार्यों में उपयुक्त होगा जहां लंबे समय तक की स्थिरता को महत्ता देनी है।
चित्रा, अनुराधा, मृगशिरा, रेवती: नर्म नक्षत्र हैं, जिनका चुनाव नृत्य, संगीत, अर्थात कला की शिक्षा लेते समय, शारीरिक संबंध बनाते समय, महत्वपूर्ण कार्यों में, नये परिधान पहनते समय, साज-सज्जा में उपयोगी होता है।
मूल, ज्येष्ठ, आद्र्रा, अश्लेषा: तीखे नक्षत्र हैं। इनका चुनाव, जादू-टोने, दुष्कर्म करने, युद्ध/सेना आदि में भरती या लड़ाई आदि के साज-सामान खरीदने या उनकी शिक्षा लेने में किया जा सकता है।
श्रावण, घनिष्ठा, शतभिषा, पुनवर्सू, स्वाति: चर नक्षत्र हैं अतः इनका उपयोग वाहनों की खरीद फरोख्त में, बागवानी आदि में उपयुक्त होता है।
घनिष्ठा के तीसरे चरण से रेवती के अंतिम चरण तक का समय ‘नक्षत्र पंचक’ के नाम से जाना जाता है  और इसमें विशेष महत्व के कार्यों को करने से बचा जाना चाहिए।
दैनिक कार्यों में कुछ जो छोटे-मोटे महत्व के कार्य होते हैं उनमें निम्नलिखित विधि का प्रयोग करने में सफलता पायी जा सकती है:
जन्म नक्षत्र से जिस समय कार्य किया जाना हो उस समय का नक्षत्र गिनकर नौ (9) से भाग दें।यदि भाग जाता है तो ठीक है अन्यथा वैसे ही रहने दें। यदि भाग देने पर शेष एक... आदि बचता है तो निम्न फल होने चाहिए:
1. शरीर को कष्ट, 2. धन व समृद्धि, 3. भय, हानि, 4. धन व समृद्धि, 5. बाधाएं, 6. मनोकामना पूर्ति, 7.भय, कष्ट 8. शुभ, 9. परम शुभ।
चंद्रमा का महत्व
मुहूर्त में चंद्रमा की स्थिति को विशेष स्थान मिलता है अतः मुहूर्त के समय चंद्रमा की स्थिति शुभ होनी चाहिए। जन्मकालीन चंद्रमा और तत्कालीन चंद्रमा परस्पर 8, 12 स्थानों में विशेष रूप से नहीं होने
चाहिए। जैसे यदि किसी कि जन्मराशि वृश्चिक है तो उसे उन दिनों का त्याग करना होगा जब चंद्रमा मिथुन राशि (8-अष्टम) में या तुला राशि (12-द्वादश) में भ्रमण कर रहा होगा।
विशेष महत्व के कार्यों में ‘पंचक’ का उपयोग फलदायी होता है और इसके द्वारा अनुकूल समय को भली प्रकार से रेखांकित किया जा सकता है। यों तो इसकी कई विधियां हैं तथापि एक सहज विधि निम्न है:
1. तिथि (जो भी उस समय विशेष पर हो)
2. वार (रविवार को यहां 1 से, सोमवार को 2 से... आदि प्रदर्शित करते हैं।)
3. नक्षत्र (जिसकी गणना अश्विनी से होती है।)
4. लग्न (समय विशेष पर जो भी लग्न उदय हो रहा हो जैसे मेष-1, वृष-2, इनका सबका योग कर नौ (9) से भाग देने पर एकादि शेष में निम्न फल होते हैं:
1. भय, कष्ट 2. आग से भय, 4. अशुभ फल, 6. दुष्परिणाम, 8 रोग। शेष 3, 5, 7 या 0 हो तो यह शुभ परिणामदायी होगा।
उदाहरण: मान लें कोई व्यक्ति अश्विनी नक्षत्र, (द्वितीया तिथि बुधवार (=4) को कन्या लग्न के मध्य महत्वपूर्ण कार्य करना चाहता है तो -
नक्षत्र संख्या अश्वनि 1
तिथि द्वितीया 2
वार बुधवार 4
लग्न कन्या 6
कुल योग 13
इसमें नौ (9) का भाग देने पर शेष बचा-4। चार शेष का अर्थ है - अशुभ फल। अतः व्यक्ति को इस समय को छोड़ अन्य शुभ समय का चुनाव करना चाहिए।

282- होने लगा उजाला( प्रौढ़ शिक्षा पर एकाँकी)



(गाँव के एक घर का दृश्य। कमरे में सामान कम है किन्तु जो है वो सलीके से रखा गया है। जमीन में चटाई बिछाये एक प्रौढ़ स्त्री व नवयुवती वहीं बैठी हैं। उनके सामने कुछ कापी किताब खुली हुयी हैं ।)
नीना: (उठते हुए) अच्छा काकी, मैं चलूं। कल शायद न आ पाऊँ।  इन्तजार न करना। वैसे भी अब तुम्हें कोई जरूरत तो है नहीं।
रामप्यारी: ऐसा काहे कहती है बिटिया। तू आती है तो मन लगा रहता है फिर पढ़ाई-लिखाई का भला कहीं अन्त है।
नीना: सो तो है काकी। पर अब तो तू पढ़ाई-लिखाई में अच्छी-खासी होशियार हो गई है।तू खुद अब पढ़ा-लिखा सकती है।
रामप्यारी : रहने दे-रहने दे,मैंने नहीं सुननी तेरी एक भी बात तुझे रोज आना होगा। पढ़ाई-लिखाई के अलावा क्या तू अपनी काकी के पास आकर बैठ नहीं सकती है?
नीना: ओ हो काकी। तुम तो गलत समझ बैठी हो। भला तुम्हारे साथ बैठे बगैर मुझे दिन काटना कैसे अच्छा लगेगा। खैर जो भी हो,मैं कोशिश करूंगी रोज आने की।
रामप्यारी : हाँ, अब कही न ठीक बात। 
नीना: अच्छा तो मैं अब चलूँ,ठीक है ना।
(नीना का जाना। रामप्यारी का किताबों आदि को संभालना कुछ घड़ी बाद दीनू का आना)
दीनू: रामपियारी। रामपियारी।। सुनती नहीं है। कान बहराये गए हैं।
रामप्यारी: अरे... अरे ! (द्वार पर आकर) काहे सोर मचाते हो। ‘रामपियारी’, ‘रामपियारी’, अरे मैं इत्ती जल्दी न होंगी राम को पियारी।
दीनू: सो तो मैं भी जाने हूँ। मगर जरा ये बता आजकल ये ‘नीना’ यहाँ रोज-रोज काहे धमक जाती है। आजकल देखता हूँ बड़ी ‘दाँत-काटी’ चल रही है। काकी-भतीजी में।
रामप्यारी: तो तुम काहे जल रहे हो। काकी-भतीजी के मामले में तुम कौन हो टांग अड़ाने वाले।
दीनू: अच्छा! अच्छा! भागवान। तू तो खाली-पीली गुस्सा करती है।
रामप्यारी: तो क्या खुश होती। तुम तो बिना सोच-समझे आते ही, दागने लगे बन्दूक थानेदार की तरह।
दीनू: (हंसते हुए) तो तुझे अब मैं थानेदार भी लगने लगा हूँ। लेकिन पगली मेरे पास बन्दूक कहाँ जो दागूँ भला।
रामप्यारी: अरे जुबान की मार के आगे तो बड़े-बड़े, तोप-गोले पानी भरे हैं ।
दीनू: देख रहा हूँ तू इधर कुछ ज्यादा ही समझदार हो रही है।
रामप्यारी: तो अब क्या समझदार होने में भी पाप लगेगा।
दीनू: रामपियारी। रामपियारी अरे बाबा मुझे माफ कर। मैं तुझसे खाली पूछ बैठा।आगे कान पकड़े जो तेरे से कुछ पूछा।
रामप्यारी: अब कान पकड़ने से क्या फायदा। “पहले आगी में मिर्चा डालो फिर धुएँ से भागो।वाह! ये खूब रही ।
दीनू: चुपचाप बैठा रहता है। मुँह पलट लेता है।
रामप्यारी: अब मुँह फेरने से क्या होगा। मैं भी बता के रहूँगी। हाँ। यहाँ मैं खाली मगज नहीं मारती। न ही नीना से तुम्हारी काट करूं। वो तो समय कटता नहीं था सो बिटिया से पढ़ना सी रही थी। रोज आ के...
दीनू: (बात काटते हुए) क्या कहा तू पढ़ना सीख रही है।
रामप्यारी: खड़े हो गए ने सिर के बाल। (गर्व से) कोई हंसी खेल नहीं है पढ़ना-लिखना। मैं हूँ जो खड़ी हूँ पहाड़ की तरह। तुम्हारी तरह नहीं कि दुम दबाई और चलते बने।
दीनू: देख-देख मुझे जोश न दिला। मैं चाहूँ तो सब पढ़ाई-लिखाई एक दिन में पूरी करके दिखा दूँ।
रामप्यारी: वाह! क्या कहने। अरे ये तुम्हारे खेत की फसल थोड़ी है जो एक रात लगे और काट लाए। ज्ञान की फसल को जितनी तेजी को काटो उससे दूनी गती से बढ़े।
दीनू: (आश्चर्य से) लेकिन ये सारी बातें तेरे मत्थे चढ़ी कैसे?
रामप्यारी: अरे ‘मत्था’ टिकाओ तो तुम्हारे भी आने लगेगी।
दीनू: लेकिन मेरा ऐसा मत्था कहाँ? अगर पढ़ने वाला छोरा होता तो तुझसे शादी काहे करता।
रामप्यारी: बहुत-खूब कही। ऐसी उलजलूल बातें कहने को मत्था है मगर पढ़ने लिखने को नहीं है। मुझसे शादी करने का इतना ही मलाल है तो मैं चली घर अपने जो तुम जैसे ‘होशियार’ के आगे टिकती हो उसको पकड़ लाओ।
दीनू: ऊहूँ तू तो नाराज होती है। अरी भलमानस मैं तो तब की बात कह रहा था जब मैं पढ़ा-लिखा बाबू होता। अभी तो मैं बिना मत्थे वाला हूँ इसलिए तू ही ठीक है।
रामप्यारी: अच्छा! तो ये बात। अब तो मैं यहाँ एक पल भी नही टिकूँगी।
(रामप्यारी अपने कपड़े बक्से में भरने लगती है।)
दीनू: (हल्के से) ये अच्छी धौंस है। जब देखो दाल न गलेगी। दौड़ पड़ी अपने अम्मा-बापू के पास मुझको गरियाने।
रामप्यारी: ये का कह रहे हो जरा मैं भी तो सुनूँ। जरूर मेरे घर वालों की बात कर रहे होंगे।
दीनू: नहीं ‘नीना की काकी’। मैं तो कह रहा था कि मैं कितना मूरख हूँ जो अपने घर की लक्ष्मी को बार-बार नाराज कर देता हूँ।
रामप्यारी: सच! मसखरी तो नहीं?
दीनू: अरे भला तुझसे मसखरी कि मेरे हिम्मत कहाँ?
रामप्यारी: ठीक है। अब-जब तुम गलती मान ही रहे हो तो काहे घर जाऊँ। चलो, मैं तुम्हें रामायण पढ़कर सुनाऊँ। अर्थ सहित वैसे ही जैसे पण्डित जी सुनाते हैं।
दीनू: (हल्के से) महाभारत तो करके दिखा ही दी है। अब रामायण भी सही।
रामप्यारी: क्या कुछ कहा? मैं कहती हूँ आखिर इधर तुम्हें कुछ दिनों से हुआ क्या है? जब देखो बुदबुदाते हो। जोर से बोलने में शर्म लगती है क्या?
दीनू: शर्म काहे की। गाँव जाने तू मेरी जोरू मैं तेरा गुलाम। मैं तो कहूँ तेरा गला इत्ता अच्छा है अब तो पण्डित जी कि छुट्टी समझ।
रामप्यारी: मैं किसी की काहे छुट्टी करने लगी। और क्या कहा ‘तुम मेरे गुलाम’। देखो फिर अगर ऐसी ओछी बात कही तो गला दबा लूँगी।
दीनू: किसका?
रामप्यारी: किसका क्या? पहले तुम्हारा फिर अपना।
दीनू: अरे-अरे छोड़ इन बातों को। मेरी आदत तो तू जानती है। अच्छा चल सुना तो रामायण की कथा।
रामप्यारी: अच्छा ठीक है सुनाती हूँ। मगर ध्यान से सुनना।
दीनू: अरे! इसमें कहने वाली क्या बात है?
रामप्यारी: हुँ, हुँ (कुछ सोचते हुए) पहले मैं बालकाण्ड की वो चौपाई सुनाती हूँ जो मुझ रट गयी है।
दीनू: अरे तू लंकाकाण्ड की चैपाई सुना, मेरी क्या बिसात जो न करूँ।
रामप्यारी: उफ, तुम्हें अभी भी ठिठोली सूझ रही है। भगवान जाने तुम कब सुधरोगे।
दीनू: अरे तू, अपने पास बैठा कर इसी तरह रोज कथा बाँचेगी तो मैं भी एक न एक दिन सुधर जाऊँगा।
रामप्यारी: (गुस्से से) ऊँह, सुधर जाऊँगा। ऐसे सुधरने वालों के लिए मेरे पास वक्त नहीं है।
दीनू: (हल्के से) जैसे ये प्रधानमंत्री हैं, वक्त नहीं है, ऊँह (जोर से) अरे समय तो निकालना ही होगा नीना का काकी, नहीं तो गाँव में तेरी ही बदनामी होगी। लोग कहेंगे दीनू की घरवाली तो इतनी समझदार है पढ़ना-लिखना जानती है और एक दीनू है -निपट, गंवार, अनाड़ी।
रामप्यारी: गंवार, अनाड़ी। अरे तुम तो बड़े खिलाड़ी हो। हाँ बस एक बात तुममे बहुत बुरी है जो हर बात को हंसी में उड़ा देते हो। उस समय तुम्हें अपना फायदा-नुकसान कुछ नहीं सुझता। अरे आजकल पढ़े-लिखे की वकत है। उसे ऊँची नजरों से देखते हैं फिर तुम्हें तो सब गाँव वाले चाहते हैं। आज पढ़े-लिखे होते तो कौन जाने सरपंच तुम ही चुने जाते।
दीनू: तू ठीक कहती है रामप्यारी। जो अपने स्कूल के मास्टर जी हैं न, वो भी मुझसे कई दिन कह चुके हैं - दीनू काका, पढ़ने-लिखने मेरे पास आ जाया करो। तुम तो बहुत समझदार हो एकदम से सीख लोगे। अभी जब मैं घर आ रहा था तो फिर मिले थे,कह रहे थे दीनू काका, क्या सोच रहे हो, अरे पढ़े-लिखे लोगे तो मुझे भी एक हाथ बंटाने वाला मिला जायेगा।
रामप्यारी: अरे,शिक्षा-दान तो बड़े पुण्य का काम है। नीना को नहीं देखा कैसे घर-घर जाकर औरतों को, बच्चों को पढ़ाने में लगी है। वैसे तुमने क्या कहा?
दीनू: अरे क्या कहता - मैंने कहा - “मास्टरजी, कब बाप मरेंगे, कब बैल बटेंगे” पहले मैं पढ़ना-लिखना सीखूँ तब तो पढ़ाऊँगा। फिर भला बूढ़ा तोता कहीं राम-राम कहता है।
रामप्यारी: तो मास्टरजी क्या बोले -
दीनू: मास्टरजी कहने लगे - दीनू काका, राम का नाम तो पवित्र नाम है जिस समय लो पुण्य बटोरो। यूँ भी आदमी की जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है उसकी समझदारी बढ़ती है।
अपना भला - नुकसान ज्यादा अच्छी तरह दिखता है। पढ़ाई-लिखाई तो नफे-नुकसान की पहचान और साफ कर देती है जैसे आँखों से मोतिया-बिन्दु हट जाए वैसे ही।
मास्टरजी तो ये भी कह रहे थे कि दीनू काका-आप पढ़ोगे, लिखोगे तो देखा-देखी औरों की भी झिझक खुलेगी।
रामप्यारी: तो मास्टरजी ने हामी भर दी।
दीनू: अभी नहीं, कहा है सोच कर बताऊँगा। दो-चार रोज में।
रामप्यारी: अरे इसमें सोचने की क्या बात है। मैंने तो नीना से एक दिन खुद कहा नीना बेटी, तू इत्ती किताबें पढ़ती रहती है। जरा अपनी काकी को भी तो कुछ सीखा दे। वो कहने लगी - अरे काकी तुमने मेरे मुँह की बात छीन ली। बस फिर क्या था उस दिन से ही हम लोगों ने इधर-उधर की बेकार बातें छोड़कर पढ़ना-लिखना शुरू कर दिया।
दीनू: (कुछ नहीं बोलता है। चुपचाप रामप्यारी को देख रहा है।)
रामप्यारी: देखो, जो मैं तुम्हें रामायण की चैपाई सुनाने को कह रही थी उसमें तुलसीदास जी कहते हैं कि संत समाज यानि पढ़े-लिखे लोगों के बीच उठने-बैठने से हर तरह का लाभ होता है।
सज्जन फल पेखिऊ ततकाला। काक होंहिं पिक बकऊ मराला।
सुनि अचरज करे जनि कोई। सतसंगति महिमा नहीं गोई।।
कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सतसंग की महिमा छिपी नहीं है। तुलसीदासजी सत्संग की ही महिमा और बखानते हुए कहते हैं।
बिनु सतसंग विवेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।
बिना सतसंग के विवेक नहीं होता और श्रीराम जी की कृपा के बिना वह सतसंग आसानी से नहीं मिलता उसके लिए तो करम करना ही होगा। सतसंगति आनन्द और कल्याण की जड़ है।
सठ सुधरहिं सत संगति पाई। पारस परस कुधातु  सुहाई।
विधि बस सुजन कुसंगत परही। फनि मनि सम निज गुनअनुसरही।
यानि दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के छूने से लोहा सुन्दर सोना बन जाता है।
दीनू: (बीच में बोलते हुए) लेकिन मैं तो तेरी जैसी समझदार औरत के साथ रहते हुए भी काठ का उल्लू ही रहा। लेकिन नहीं, मैं भी अब पढ़ना लिखना सीखूँगा। पहले मैं भी सोचता था इस उम्र में पढ़ने-लिखने से क्या होगा पर मास्टरजी ने सच कहा राम नाम लेने के लिए उम्र थोड़ी ही देखी जाती है। पढ़ाई-लिखाई पुण्य का काम है। मैं भला इसमें काहे पीछे रहूँ। फिर मास्टरजी जैसे नेक दिल आदमी की बात रखना भी हो
जाएगा। मुझे उनकी बात मान कर देखनी ही चाहिए।
रामप्यारी: क्यों नहीं, क्यों नहीं, तो अब कल मास्टरजी को हामी भर देना।
दीनू: कल, अरे कल काहे भागवान। आज और अभी जाऊँगा। बस जरा भूरी को अपने हाथ से खाना खिला आऊँ।
रामप्यारी: (जाती है, फिर एकदम से पलटकर) अरे हाँ सुनो गोपाल भईय्या के घर के पास वाली देवी मईय्या को चार बतासे चढ़ाते हुए मास्टरजी के घर जाना।
दीनू: अरे हाँ, तूने अच्छी याद दिलायी। लेकिन पहले अपनी देवी का तो मुँह मीठा करूँ। जा,भीतर मिश्री पड़ी होगी, ले आ।
रामप्यारी: ऊँह, अब इस उम्र में यही सब तो करोगे।
दीनू: अरे मास्टरजी ने ही तो कहा है अच्छे काम में उम्र नहीं देखी जाती है।
रामप्यारी: चलो हटो। (दीनू का हंसना, रामप्यारी का जाना)
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Thursday, 18 December 2014

281 - 16/12/14 पेशावर

शब्द ……...... निशब्द, भाव  ………सब शून्य हो गए
लब  ……  ..... सिले,    नेत्र  ............... कातर हो गए
देख रक्त सने नवजात से ये  पुष्पगुच्छ
शेष सारे,जीते जी ही जैसे मर गए।

हाथ कांपने से इनके क्यों नहीं रह गए
मानवीय वेष में कैसे ये पिशाच बन गए
दूध खुद पिलाया आस्तीन में तूने इन्हे
ले सांप नीड़ तेरा ही अब निगल गए।

लहू से जब वो उपवन नहला गए
वार तेरे कलेजे पर ही कर गए
अब तो चेत खुदा की कसम तुझे
क्या रूह भी तेरी वो हैं मार गए ?

Wednesday, 17 December 2014

280 - श्रीभगवद्गीता भक्ति योग अध्याय -12







 
श्री गणेशाय नमः 
अर्जुन बोले योगेश्वर श्री कृष्ण से,प्रभु कौन है योगवेत्ता इन दोनों में
सगुन रूप जो है एक भजता,या निर्गुण रूप जो ध्याये अपने मन में। 1

प्रभु बोले हे अर्जुन मुझको प्रिय भक्त वही जो नित ध्याता है मुझको 
अतिशय श्रद्धा से सगुन रूप को मेरे,साधे अपने तन-मन को। 2  

लेकिन जो वश में कर इंद्री को अपनी,गहरे चित्त को स्थिर है करता 
मन-बुद्धि परे,सर्वत्र व्याप्त अकथनीय रूप को मेरे नित्य ही है भजता।3 

निर्गुण साधक सारी सृष्टि के कण-कण के हित में,सदा-सदा ही रहता 
 ऐसा न्यारा भक्त जो सबमें समभाव है रखता,वो मुझको ही है पाता । 4

यद्यपि ऐसा साधक भक्त जो मेरा,निर्गुण,निराकार स्वरुप है ध्याता
उसका देहातीत हो कर मुझको पाना,दुःख पा कर ही हो पाता। 5

जो नर कर्मों को सारे,अर्पित कर मुझको हैं भजते
भक्ति भाव में विह्वल हो,ध्यान लगा मुझको हैं पूजते। 6

भक्तों का ऐसे में अपने,बिना जरा भी विलम्ब किये
भवसागर से करने उद्धार,तत्पर सारे कर्म किये। 7

अर्जुन मुझमें तू मन को लगा ले,मुझमें ही तू बुद्धि लगा
फिर न करना जरा भी संशय,मुझमें ही तू निवास करेगा। 8

यदि धनञ्जय नहीं समर्थ है,चित्त स्थिर लगाने में
बार-बार स्मरण कर मेरा,मुझको ही तू पाने में। 9

अभ्यास योग यदि न हो संभव,कर्म किया कर मेरे लिए
सिद्धि प्राप्त करेगा तब भी,जो कर्म करे तू मेरे लिए। 10

कर्म भी तुझसे संभव न हो,करना कुछ भी जब मेरे लिए
तो कर्मों का फलत्याग तू कर दे,स्वआत्म को वश में किए। 11

अभ्यास से क्योकि ज्ञान श्रेष्ठ है और ज्ञान से ध्यान को करना
लेकिन बेहतर तत्काल शांति हित,कर्मफल का त्याग तू करना। 12

सभी तत्व में द्वेष रहित जो,मैत्र भाव से भरा हुआ करुणा में डूबा रहता हो
ममता,अहंकार से मुक्त और दुःख सुख में सम,साधक क्षमा भाव से युक्त हो। 13

ऐसा साधक जो हो संतुष्ट सदा,मन - इन्द्रिय संग वश में अपनी देह किये हो
मुझको प्रिय भक्त वही,मन बुद्धि अर्पित कर जो,दृढ निश्चययुक्त मुझमें हो। 14

साधक न घबराता किसी से और न जीव डरे कोई भी उससे
हर्ष,अमर्ष,भय,व्यकुलता रहित जो,प्रेम है मुझको उससे। 15

शुचितापूर्ण,दक्ष जो साधक इच्छा,पक्षपात व दुःख से मुक्त सदा ही रहता
सब कर्मों का शुरू से त्यागी,भक्त मेरा वो मुझको प्रिय सदा-सदा ही रहता। 16

जो न होता कभी भी हर्षित,न करता है कभी द्वेष किसी से
शोक नहीं होता है उसको,और प्रीत नहीं किसी भी इच्छा से। 17

शत्रु-मित्र,मान-अपमान सब में रहता,सदा-सदा वो एक समान
जाड़ा-गर्मी,सुख-दुःख,आसक्ति रहित,ऐसा उसका सच्चा ज्ञान। 18

निंदा-बढ़ाई उसको रहती एक समान,मितभाषी वो जो है संतोष प्रधान
घर की माया नहीं सताए,स्थिरमति का प्यारा मुझको भक्तिपूर्ण इंसान।19

धर्मयुक्त उपरोक्त अमिय का जो भी जन सदा रसपान हैं करते
ऐसे श्रद्धानवत मेरी खोज को तत्पर,मुझको अतिप्रिय हैं लगते।20

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासुपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्री कृष्णार्जुन संवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोअध्यायः श्रीकृष्ण चरणम् सादर समर्पयामि। जय श्रीकृष्ण।


हरे राम हरे राम,राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण,कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।


Tuesday, 16 December 2014

279 - रूद्राक्ष महिमा









रूद्राक्षोपनिषद, रूद्राक्ष कलोपनिषद, शिवपुराण, पद्मपुराण और तंत्र-मंत्र के अनेक ग्रन्थों में
रूद्राक्ष के कई गुणों का वर्णन मिलता है। रूद्राक्ष साक्षात भगवान शिव का रूप माना जाता है। अतः
इसके दर्शन, स्पर्श तथा जप मात्र से संपूर्ण पापों को नष्ट करने में सहायता मिलती है। भोले शंकर
के प्रिय आभूषणों सर्प, भस्म, बाघम्बर आदि में एक रूद्राक्ष भी है। इसकी उत्पत्ति भी शिव के नेत्रों से
टपकी बूदों के फलस्वरूप ही मानी जाती है।
रूद्र+अक्ष = रूद्राक्ष, इसका नाम तभी पड़ा है।
रूद्राक्ष के वृक्ष मध्यम आकार के, दिखने में सुंदर भूटान, नेपाल, जावा, सुमात्रा, इंडोनेशिया, वर्मा,
मलेशिया में अच्छी मात्रा में पाए जाते हैं। इस वृक्ष के छोटे व गोलाकार से पत्ते होते हैं। यह रूद्राक्ष,
आंवले के आकार का सर्वश्रेष्ठ, बेर की गुठली के समान मध्यम व चने के दाने के आकार का अधम माना
जाता है। पूजा मंत्र, तंत्र एवं मालाधारण तथा औषधि के काम में यह सर्वोत्तम माना जाता है। इसी प्रकार
चिकना-मजबूत-मोटा रूद्राक्ष ही धारण करना उपयुक्त होता है। कटा, टूटा, कृत्रिम रूद्राक्ष धारण करना
दोषपूर्ण है।
विभिन्न प्राचीन तांत्रिक-मांत्रिक पुस्तकों में चार प्रकार के रूद्राक्षों का वर्णन मिलता है। श्वेत,
रक्त पीत और कृष्ण। अपने गुण धर्मों के अनुसार निज वर्ण का निश्चयक करके तद्नुसार रूद्राक्ष
धारण करने वाले के तन और मन पर रूद्राक्ष का अतिशीघ्र प्रभाव बताया गया है। ब्राह्मण गुण धर्म वाले
को श्वेत, क्षत्रिय गुण वाले को रक्त, वैश्य गुण धर्म वाले को पीत तथा शुद्र धर्म वाले को कृष्ण वर्ण का
रूद्राक्ष धारण योग्य है। यहाँ  यह ध्यान रखना चाहिए कि यह वर्ण व्यवस्था सामाजिक वर्ण व्यवस्था के
इतर है। रूद्राक्ष को अक्कम, नीलकण्ठाक्ष, हराक्ष, रूद्रचल्लु, उद्रोव व आंग्ल भाषा में UTRASUM BEAD 
 के नाम से जाना जाता है।
रूद्राक्ष दीर्घायु देने वाला, रोग-संताप-कष्टप्रद स्थितियों से बचाने वाला माना गया है। यह
भूत, प्रेत व मानसिक संताप से दूर रखता है। इसके धारण करने से सात्विक भाव उपजते हैं।
उपनिषदों में एक से लेकर तेईस मुखी वाले रूद्राक्षों का वर्णन आता है। रूद्राक्ष में पड़ी धारियाँ ही इसके
मुख हैं। पुराणों में एक से चौदह मुखी तक के रूद्राक्षों का ही वर्णन मिलता है। प्रायः चौदह
मुखी तक के ही रूद्राक्ष प्राप्त भी होते हैं। विभिन्न मुखी रूद्राक्ष धारण किये जाने पर पर उनके  भिन्न-भिन्न फल 
प्राप्त होते हैं तथा इनका धारण मंत्र भी अलग-अगल होता है। एक से चौदह मुखी रूद्राक्षों की संक्षिप्त महिमा
निम्न प्रकार है:
एकमुखी: साक्षात शिव का प्रतीक है, इसकी महिमा कल्प वृक्ष के समान गायी गयी है।जहाँ  
यह रहता है वहां लक्ष्मी का अटूट निवास होता है। इसको धारण करने की बात का महत्त्व 
तो है ही वहीँ  इसके दर्शन मात्र से भी पुण्यों की वृद्धि होती है,ऐसी मान्यता है। 
धारण मंत्र: ओम ह्रीं नमः।।अधिष्ठात्री देव - अर्धनारीश्वर
द्विमुखी: शिव-पार्वती का प्रतीक है। भूत-प्रेत बाधा नाशक, मिर्गी,मूर्छा में उपयोगी माना
जाता है। इसके धारण से मानव भक्ति-मुक्ति प्राप्त कर लेता है। शिव-पार्वती की
कृपा प्राप्ति हेतु इसे धारण करना उपयुक्त है।
धारण मंत्र: ऊँ श्रीं हृीं क्षों हूँ ऊँ।।
त्रिमुखी: त्रिगुणात्मक, त्रिदेवों, तीनों अग्नियों का स्वरूप है। अग्निदेव ही इसकी अधिष्ठात्री देव
हैं। तीनों-कालों के ज्ञान को देले वाला है। इसके धारण से शारीरिक सुख मिलता
है। कार्य-सिद्ध कराने में यह समर्थ है।
धारण मंत्र: ऊँ रं हूँ हृीं हूँ ऊँ।।
चतुर्मुखी: चतुर्मुखी ब्रह्म देव का स्वरूप इस रूद्राक्ष के ब्रह्म ही अधिष्ठात्री देव हैं। इसे धारण
करने से धर्म, अर्ध, काम, मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह पाप नाशक एवं दूषित
विचारों का दमन करता है। साक्षात्कार, सम्मोहन वशीकरण में भी समान उपयोगी
है।
धारण मंत्र: ऊँ ह्रीं नमः।।
पंचमुखी: शिव के पाँच मुख (सद्योजा, भव, तत्पुरूष, अघोर तथा ईशान) स्वरूप इस रूद्राक्ष
के अधिष्ठात्री देव कालाग्नि रूद्र हैं। यह शांत निर्विकार भाव व काम वासना से दूर
रखने हेतु उपयोगी है।
धारण मंत्र: ऊँ ह्रीं नमः ।।
षडमुखी: शिवपुत्र कार्तिकेय स्वरूप रूद्राक्ष के स्कन्द देव अधिष्ठात्री देव हैं। हिस्टिरिया,
प्रदर, स्त्रियोचित कष्टों में उपयोगी कहा गया है। यह वेदाध्ययन के षड-अंग
स्वरूप का कारक होने से ज्ञान की प्राप्ति में उपयोगी है। मंदबुद्धि छात्र/व्यक्ति
इसे धारण कर लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
धारण मंत्र: ऊँ हृीं श्रीं क्लीं सौं ऍ।।
सप्तमुखी: यह कामदेव का स्वरूप है, इसके अधिष्ठात्री देव सप्ताशय देव हैं। यूँ यह सप्तमातृका,
 सप्तऋषि व सप्तकोटि महामंत्र स्वरूप है। यह दीर्घायु कारक है। अतः
मारकेश की दशा में धारण योग्य है। सन्निपात, शीत ज्वर व अस्त्र-शस्त्र चोटादि
से बचाता है। महालक्ष्मी की कृपा हेतु भी इसे धारण किया जाता है।
धारण मंत्र: ऊँ हृां क्रीं हृीं सों।
अष्टमुखी: भैरव का स्वरूप है। श्री बटुक भैरव व श्री गणेश इसके अधिष्ठात्री देव हैं। यह सट्टे,
जुएं अर्थात आकस्मिक लाभ में परम उपयोगी है अतः व्यापारी वर्ग ने इसे धारण
करना ही चाहिए।
धारण मंत्र: ऊँ हृां ग्रीं लं अं श्री।
नौमुखी: नवनाथ नवग्रह स्वरूप है, दुर्गा माँ इसकी अधिष्ठात्री देवी हैं। यह प्रायः कठिनता से
प्राप्त होता है। हृदय रोग मिटाने, शत्रुओं को हराने व मुकदमें में विजय हेतु उपयोगी
है।
धारण मंत्र: ऊँ हृी वॅ रं लं।।
दशमुखी: भगवान विष्णु का स्वरूप है। अधिष्ठात्री देव- दस दिकपाल (दिशा स्वामी) है। इसे
धारण करने से नवग्रह अनुकूल होते हैं। विष्णु भक्त इसे अवश्य धारण करें।
धारण मंत्र: ऊँ श्रीं हृी कलीं श्रीं ऊँ।।
एकादशमुखी: एकादश रूद्र स्वरूप है। अधिष्ठात्री देव इंद्र हैं। इसे धारण करने वाला एकादशी व्रत
के तुल्य पुण्य पाता है। यह स्त्रियों के सौभाग्य हेतु अधिक उपयोगी है।
धारण मंत्र: ऊँ ह्रीं हूं ।।
द्वादशमुखी: द्वादश ज्योर्तिलिंग स्वरूप है। अधिष्ठात्री देव सूर्य हैं। सूर्य ग्रह से पीड़ित व्यक्ति इसे
अवश्य धारण करें तो लाभदायी है। शत्रुओं, हिंसक पशुओं से रक्षा में समर्थ है।
धारण मंत्र: ऊँ हृीं श्रीं धृणिः श्रीं।।
त्रयोदशमुखी: यह साक्षात विश्वेश्वर स्वरूप है। इसके देव इंद्र हैं। यह संतान प्राप्ति में ,व्यक्तित्व
को आकर्षक व भव्य बनाने में काम आता है।
धारण मंत्र: ऊँ ह्रीं नमः ।।
चतुर्दशमुखी: हनुमान जी का स्वरूप है इसके अधिष्ठात्री देव - पवन देव हैं। यह वहम, घबराहट,
पागलपन, भूतप्रेत आदि कष्टों से मुक्ति दिलाने वाला है।
धारण मंत्र: ऊँ नमो नमः ।।
रूद्राक्ष असली है या नकली इसकी पहचान सरल है। दूध या पानी में डालने से असली रूद्राक्ष
डूब जाता है, इसे यदि धागे से बांध कर ऊपर की ओर ले जाएं तो घड़ी के पेंडुलम की तरह हिलने
लगता है। तथा कसौटी पर घिसने से एक रेखा पड़ जाती है। यदि व्यक्ति असली व निर्दोष रूद्राक्ष
धारण करें तो समय पूर्व ही कार्य सिद्ध हो जाता है।
धारण विधि: रूद्राक्ष की सामान्य धारण विधि निम्न प्रकार है:
रूद्राक्ष धारण करें तो पूर्ण विश्वास,श्रद्धा व पवित्रता के साथ। उसे गंगाजल या
अन्य पवित्र/शुद्ध जल से स्नान कराकर उसका शिव के समान विधिवत स्नान, चंदन, भस्म लेप (स्वयं
के भी) कर अक्षत, धूप-दीप से पूजन करना चाहिए। पूजनोपरांत ऊँ नमः शिवाय मंत्र का 108 बार जप
करके रूद्राक्ष को शिवलिंग से स्पर्श कराकर पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुख करके 21 या अधिक
बार सम्बंधित  रूद्राक्ष मन्त्र  का जाप करें। रूद्राक्ष को स्वर्ण, रजत अथवा लाल
या काले रेशमी डोरे में पिरों कर गले/दाहिने हाथ में धारण करना चाहिए।
रूद्राक्ष का महौषधि के रूप में आयुर्वेद विशेष वर्णन करता है। उसके अनुसार यह खट्टा, उष्ण,
वायुहर्ता, कफ-नाशक, सिरदर्दहन्ता, जठराग्नि बढ़ाने वाला रूचिवर्धक है। अम्ल की पर्याप्त मात्रा होने
से यह रक्तवर्धक, रक्तशोधक विकार नाशक एवं विटामिन सी से पूर्ण है। चेचक, छोटी चेचक, ओदरी,
बोदरी निकलने पर इसे धारण करने से आराम मिलता है। उष्ण होने से सर्दी और कफ से होने वाले
सभी रोगों टीबी, दमा गैस्टिक में लाभदायक होता है। शहद में रूद्राक्ष को घिस कर देने से कफ प्रकृति
गत रोग नष्ट होते हैं। रूद्राक्ष के दाने को पानी में घिसकर फोड़े में लगाने से ठंडक पहुंचती है। चेचक
व पित्ती आदि रोगों में इसके साथ पपीते के बीच को गूंथ कर पहनाने से आराम पहुंचता है। ब्लड प्रेशर
के रोगी को दो तीन दाने  रूद्राक्ष पानी में भिगोकर रातभर रखने चाहिए तथा सुबह खाली पेट वह पानी पीना
चाहिए। इस प्रक्रिया को प्रतिदिन करने पर रोग को समाप्त करने में बड़ी सहायता मिलती है। इसे सिर
में धारण कर स्नान करने से तीर्थ जल-स्थान का पुण्य मिलता है। रूद्राक्ष के धारण से सन्निपात, मानसिक
उन्माद, प्रेतादिक बाधा शांत होती है। सर्प दंश में कच्चे रूद्राक्ष को पीसकर पिलाने से उल्टी हो कर
रोगी को आराम मिलता है। इसकी छाल का काढ़ा पीने से संधिवात, पित्त विकार, निमोनिया व मिर्गी
जैसे रोगों से लाभ मिलता है।छोटे  बच्चों को रुद्राक्ष,माँ के दूध में घिसकर चटाने से छाती में जमा कफ समाप्त
होता है। इसे बाहरी रूप से भी छाती में मला जा सकता है। हकलाहट का दोष होने पर इसे कण्ठी
से लगा हुआ धारण करना चाहिए। इसकी भस्म हैजा, पेचिस, दमा में लाभकारी होती है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जिस प्रकार भोलेनाथ शिवशंकर अपने भक्तों के विघ्नों को क्षणों में
दूर करने के लिए प्रसिद्ध हैं ठीक उसी प्रकार उनका प्रिय रूद्राक्ष भी अध्यात्मिक, मानसिक, शारीरिक
आदि विभिन्न क्षेत्रों में मानव की सहायता हेतु तत्पर है। आवश्यकता है इस दिशा में कुछ और शोध किए
जाने तथा इसके बहुमुखी गुणों को वैज्ञानिक आधार पर पुष्टित करके प्रचारित-प्रसारित किए जाएं।
- नलिन पाण्डे ‘तारकेश’

Monday, 15 December 2014

278- सेवक और स्वामी








प्रतिदिन की तरह आज भी प्रायः पहली भोर की किरणों के निकलने से कुछ समय पूर्व जब राम
शय्यागृह से बाहर निकल कर आए तो देखते हैं - सेवक हनुमान पूर्ण श्रद्धा के साथ बाहर प्रांगण में
उनकी चरण पादुकाएं अपने उत्तरीय से स्वच्छ करते हुए “श्री राम जय राम“, श्री राम जय राम“
गुनगुनाते मिले। प्रभु उन्हें देख मुस्कुराए और मन ही मन उनकी सेवा भावना से अभिभूत हो उठे।
राम के पदचाप से हनुमान चैकन्ने हो उठे थे और पादुकाएं लेकर उनके सम्मुख पहुँच कर सर्वप्रथम
साष्टांग प्रणाम किया फिर पादुकाएं अपने हाथ से पहनाने लगे। श्री राम यूँ तो रोज देखते ही आ रहे
थे, जब से पवनपुत्र ब्राह्मण के वेश में प्रथम बार मिले थे तब से अब तक उनकी सेवा,उत्साह और
लगन से की। हनुमान में कितना निश्छल समर्पण भाव है वह उनसे छिपा तो था नहीं पर आज पूछ
ही बैठे - महावीर, तुम इतनी सजगता और सरलता से मेरी प्रतिदिन सेवा करते हो, मुझे स्नान कराते
हो, विभिन्न सुगन्धित द्रव्यों से मेरे शरीर को सुवासित करते हो, नए से नए, कीमती से कीमती
वस्त्राभूषण चुन कर लाते हो, मुझे आदरपूर्वक बिना किसी त्रुटि के पहनाते हो, संवारते हो।
राजभवन/प्रासाद में भी मेरे कार्यों/आदेशों को दौड़-दौड़ का पूरा करने में अग्रणीय रहते हो और
रात्रि जब तक मैं श्यनागार में विश्राम हेतु चला नहीं जाता तुम कुशलतापूर्वक मेरे सभी कार्यों में 
सहायक होते हो, तुम्हें अपनी भी सुध-बुध नहीं रहती। जरा अपना भी कुछ श्रृंगार आदि नहीं तो सुंदर
वस्त्रादि ही धारण कर लिया करो। क्या तुम्हारे लिए यहाँ कुछ कमी है? राम ने बड़े प्रेमपूर्वक पूछा।
कहाँ महाराज-ऐसा कहाँ? आपके रहते मेरे लिए किस सुख की कमी हो सकती है? आपके दिए सेवक,
आपके दिए सुंदर वस्त्राभूषण उन सबसे तो आपके द्वारा प्रदत्त इस सेवक का प्रासाद अटा पड़ा है,
वह अन्यत्र कहाँ? पर हनुमान तुम मुझे यह सब क्यों धारण कराते हो? राम ने हलके स्वर में हनुमान से जानना चाहा।
अरे प्रभु आप तो हमारे स्वामी हैं। अवधपुरी के राजा ही नहीं समस्त त्रिलोकों के, चराचर जगत के
अनवरत नाथ हैं। हनुमान स्वभावतः अपने प्रभु की प्रशंसा में अनवरत उद्गार व्यक्त करते जा रहे थे
तो बीच में टोक कर श्रीराम बोले - तो त्रिलोकेश्वर के स्वामी का सेवक  ऐसी साधारण सी वेशभूषा वाला
होगा? क्या मेरी हंसी करवाओगे? नहीं, प्रभु नहीं, ऐसा तो स्वप्न में भी नहीं सोचता पर क्या करूँ सत्य
कहता हूँ, सीता माता की सौगंध मुझे आपके अतिरिक्त और किसी बात का होश नहीं रहता। हर समय
आपका ही स्मरण, चिन्तन, मनन। मन में सदैव यही भाव रहता है कि क्या करूं जिससे आपको और
उल्लासित, आनन्दित कर सकूँ। सत्य कहता हूँ प्रभु रंच मात्र भी और कुछ नहीं सूझता - कहते-कहते-कहते
हनुमान का कंठ अवरूद्ध हो गया। मर्यादा पुरूपोत्तम राम, करूणासिंधु राम अपने प्रिय भक्त की इस
वेदना से अपने की करूणा सागर में गहरे डूबते ही चले गए और हनुमान के भक्तिभाव से आहृलादित
हो झपट कर उनके अपने गले से लगा लिया। भक्त और भगवान का यह अप्रतिम मिलन रोम-रोम को
पुलिकित कर गया। इसी भाव में, हनुमान की भक्ति व सेवा की भावना से अभिभूत प्रभु के कोमल बचन
झंकृत हो उठे। हे हनुमान तुम भक्तों के शिरोमणि हो, तुम सेवा भावना की अद्भुत अवर्णनीय पराकाष्ठा
हो तुम्हारे जैसे उच्चतम प्रज्ञासंपन्न, गुणवानों में श्रेष्ठतम व्यक्ति को अपनी सेवा में रखकर मैं स्वयं को
गौरवान्वित महसू करता हूँ। इससे अधिक मैं क्या कहूँ हनुमान? तुम्हारा दूसरा उपमान कहाँ से लाऊँ,
ऐसा तो अद्वितीय है, एक ही है और वो हो तुम स्वयं।
अतः जब भी कोई तुम्हारी भक्ति स्नेह से, पूर्ण निष्ठा से करेगा तो उसको मेरी भक्ति के तुल्य वांछित
कृपा का आधार मिलेगा और इसमें कोई संदेह नहीं कि वह व्यक्ति इस संसार सागर से पार हो जाएगा।
“नहीं स्वामी नहीं”, हनुमान चीखे जैसे सैकड़ों हजारों बिच्छुओं ने एक साथ डंक मार दिया हो - इस
सेवक को सेवक ही रहने दें प्रभु - घरघराते रूधे कंठ से हनुमान बोले। नहीं ये मेरा आदेश है, तुम्हारे
स्वामी का आदेश है। अब क्या कहते हनुमान अवाक् थे, पर सरस्वती को तो उन पर वरदहस्त था, सो
बोले जैसे स्वामी की आज्ञा पर मैं सेवक हूँ तो सेवक का ही काम सुहाता है-सो ऐसा करें जो भी आपकी
या आपके इस तुच्छ सेवक की भक्ति करेगा उसे मैं अपने आराध्य देव के श्री चरणाश्रित कर दूँगा तब
उसकी हर प्रकार से क्षत्र मात्र में मुक्ति हो जाएगी। प्रभु भक्त की इस तीक्ष्ण बुद्धि के आगे नतमस्तक
हो स्मित हास्य के साथ बोल पड़े - साधू, साधू। ऐसा ही हो, ऐसा ही हो।
- नलिन पाण्डे ‘तारकेश’

277 -कलयुग की सीता


लक्ष्मण बोला, “भाभी मैं जा रहा हूँ, अपना ख्याल रखना और हाँ मैं बाहर एक रेखा (सीमा रेखा) खींच
के जा रहा हूँ, उसका अतिक्रमण न करना।”
इतना कहकर लक्ष्मण तेजी से आगे बढ़ा तो सही परंतु मन ही मन आशंकित भी था कि कहीं भाभी
उसकी हिदायतों को इस बार भी ध्यान से उड़ा तो नहीं देगी। लक्ष्मण का यह संदेह निर्मूल नहीं था।
त्रेता युग से कलयुग तक के लंबे समय में केवल पात्र ही तो बदले थे, समीकरण तो अब भी अनछुआ
सा तथा बिना हल हुआ ही हर नयी पीढ़ी को पुरानी पीढ़ी से उत्तराधिकार में मिल रहा था। यूँ तो
रावण नंगी आँखों के प्रमाणानुसार त्रेतायुग में मर चुका था, पर सच्चाई यही थी कि रावण जिंदा था
और उसकी कर्णभेदी अट्टहास हर क्षण गूँजता था।
अतः यही सब सोच लक्ष्मण के मन, मस्तिष्क में जब शंका के मेघ और भी काले हो उमड़-घुमड़ करने
लगे तो उसने एक बार पुनः सीता को सावधान कर देना उचित समझा। लक्ष्मण दौड़ता, हांफता
आधे रास्ते से वापस सीता के सम्मुख पहुंचा और संपूर्ण हिदायतों को टेपरिकाॅर्डर की भांति दुबारा
उगल कर अपने मार्ग पर बढ़ गया। अब वह पहले की अपेक्षा अधिक संतुष्ट था।
इधर सीता लक्ष्मण के आने-जाने से और भी व्याकुल सी हो दुश्चिंताओं का आंचल सिर पर ओढ़े
विचार मग्न थी कि काश वह लक्ष्मण को रोक लेती, उसे न जाने देती किंतु कहाँ ऐसा संभव हो पाया।
उचित वक्त पर तो जुबान को जैसे लकवा मार गया था और फिर लक्ष्मण भी तो आंधी, तूफान जैसे
वेग से शीघ्र ही चलते बने। सीता स्वयं को दोष देने लगी कि उसने लक्ष्मण को भेज कर बड़ी भारी
भूल की। अब थोड़ी देर में रावण आयेगा और ऐसी लच्छेदार बातें बनायेगा कि वह मोम की भांति तुरंत
पिघल जाएगी फिर उसे कुछ ध्यान न रहेगा। वह सहजता से रावण के प्रलोभन रूपी जाल में फंस कर
उसका शिकार हो जाएगी। सीता यही सब सोच ही रही थी कि “माई, भिक्षा दे,“ की आवाज से उसके
सोचने में व्यवधान पड़ा। बाहर देखा रावण खड़ा था। सीता को जैसे शक्तिशाली विद्युत का झटका
लगा, उसकी पूरी देह चरमरा गई। अभी तो वह भली भांति अपने आप को रावण के सामुख्य के लिए
तैयार भी न कर पायी थी कि...
खैर, अब तो सामना करना ही पड़ेगा, यही सोच सीता ने अपने आप को स्वयं ढाढ़स बंधाया और किसी
तरह बड़ी हिम्मत का परिचय देते हुए उसने कहा, “रावण मैं तुझे इस बार पहचान गई हूँ, तेरी
मीठी-मीठी बातों में छुपे जहर को भी मैं अब स्पष्ट रूप से देखने में समर्थ हूँ। अतः तेरा भला इसी
में है कि तू यहाँ से शीघ्र ही चलता बन।“
रावण शांत था, जैसे उसे पूर्ण विश्वास था कि अन्ततोगत्वा सीता की हार तय है, अतः मंझे हुए
खिलाड़ी की भांति उसने वाक्चातुर्य के जादू की झंडी घुमानी चालू रखी छोटी रूठी हुई प्यारी सी बच्ची
को जैसे कभी सुंदर रंगबिरंगी कांच की चूड़ियों, रिबन, बुंदे, गजरे आदि द्वारा बहलाने का क्रम तब तक
चलता रहता है जब तक गुड़िया रानी मान न जाए। ठीक उसी तरह रावण भी चालू था। रावण कभी
वेदपुराण से उद्धरण देता तो कभी अपने स्वयं के दिमाग की उर्वरा शक्ति संपन्न खेत से। कभी स्वर
में व्यंग्य झलकता था तो कभी नारी के भीतर छिपी भैरवी को आहृवानित करने के लिए किसी सिद्ध
तांत्रिक की भांति मंत्र बुदबुदाता।
कुछ भी हो, न चाहते हुए भी सीता को रावण के लंबे लैक्चर ने खूब झंझोड़ा और साथ ही आकर्षित भी
किया। वह सार रूप में इतना समझ गई थी कि अब अशोक वन अर्थात ऐसा वन जहाँ शोक
न रहते हों, का पूर्णतः आधुनिकीकरण हो गया है। वहाँ उसके व्यक्तित्व को पूर्ण निखरने का मौका
मिलेगा और यही तो उसके दबे घुटे अरमान हैं जो भालू की तरह ठंड के कारण गुफा में जाकर
मृत प्राय से हो गए थे। आज रावण द्वारा धूप की पहली किरण दिखाने से उनमें नवीन स्पंदन प्रारम्भ
हो गए।
सीता सोचने लगी कि आखिर नारी कब तक पुरूषों की दासी बनी रहेगी? नारी मुक्ति आंदोलन का
बिगुल जो आज बज रहा है उसमें प्रत्येक स्त्री की भागीदारी नितांत आवश्यक है और अभ्यास के
प्रथम चरण में लय-ताल पूर्णतः एक सुर में बहें ऐसा कहाँ हो पाता है। अतः फिलहाल तो उसे लयबद्ध
तरीके या बिना लय के कदम-ताल करनी ही है, कंधे मिलाने के लिए ही सही.यही समय की पुकार
है। साथ ही इस युग में एक सुविधा यह भी है कि आप हर रोज रात के गहन अंधकार की छाया
फैलने से पूर्व ही अशोक वन रूपी कार्य क्षेत्र से अपने नीड़ में आकर आराम से शांत चित्त हो बैठ
सकते हैं। यह सोच सीता रोमांचित हो उठी। तत्काल ही लेकिन उसकी दीप्त आभा सी मुस्कान इस
विचार से जम कर सिकुड़ सी गई कि अशोक वन में राक्षस, राक्षसियों की टोली तो उसके उत्साह
पर चील गिद्धों की तरह झपट पड़ेगी और अगर कोई त्रिजटा इस बार मानवी रूप में उसकी सहायता
के लिए बढ़ी फिर तो यह बात निश्चय ही शक में उत्प्रेरक का सा कार्य करेगी। अरे हाँ, सीता को 
ध्यान आया अब तो अग्नि परीक्षा भी प्रतिदिन होगी पता नहीं किस-किस का मुंह बंद करने के लिए।
शाम को आते ही राम मर्मान्तक बाणों से उसका कलेजा छलनी कर सकते हैं जैसे-“तुम तो आॅफिस
में नही थी मैंने फोन किया था, ये वक्त है आने का? अच्छा इत्तफाक से बाॅस की गाड़ी आज यहीं से
हमारे घर से गुजरी।“
वो क्या करें उसकी समझ में नहीं आ रहा था, सोच-विचार में बहुत देर होती देख रावण भी अधीर हो
उठा और झल्लाते हुए बोला, “क्या करती हो माई, इतना सोच विचार आखिर क्यों? अंतिम परिणति तो
तुम्हारा घर से निष्कासन ही है न, फिर वो चाहे किसी धोबी के कहने से हो या फिर स्वयं राम के अंतर
मन में छिपी हिचकिचाहट से।“
“बस आती हूँ, तुम थोड़ी देर प्रतीक्षा करो,” सीता ने शीघ्रता से सब स्थितियों का बारीकी से अवलोकन
करते हुए कहा। वह कोई ठोस दृढ़ निश्चय लेने में सफल हो गई थी और अपने इसी विश्वास भरे
कदमों की छाप राम को देने के लिए उसने पत्र लिखना प्रारंभ कर किया -


प्रिय राम,
आज मैं रावण के संग स्वयं लक्ष्मण रेखा को लांघ कर जा रही हूँ इसलिए नहीं कि मुझे आज्ञा
का उल्लंघन करने से कोई खुशी मिलती है अपितु इसलिए कि लक्ष्मण की खींची गई रेखा एक पुरूष
की खींची गई रेखा है। ऐसी रेखा जो स्त्री को सदैव कूप-मंडूपता के नर्क में, बेड़ियों से जकड़े हुए
सांस लेने पर मजबूर करती है। मैं तो समझती हूँ कि हम सब के अंदर एक रेखा है जो मानवीय मूल्यों
के हृास को रोकने के लिए चमकती हुई स्पष्ट सी खींची हुई है फिर स्त्रियों के लिए एक और दूसरी
रेखा खींचने का औचित्य?
तुम तो बड़ी सहजता से यह कहकर छुट्टी पा लोगे कि यह सब तो सुरक्षा के लिए था लेकिन
सच बताओ किसकी सुरक्षा के लिए? अपनी या मेरी? मैं जानती हूँ प्रिये, पुरूषों को स्त्रियों से सदैव भय
रहा है लेकिन यह निर्मूल है क्योंकि नर और नारी तो दो विपरीत ध्रुवों के रूप में विशिष्ट प्रकार से
गठबंधित हैं कि एक को भी लेकर चलने से सृष्टि रूपी चुंबक कार्य करने में असमर्थ हो जाता है।
अच्छा अगर मैं थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाए कि तुम्हें वस्तुतः मेरी सुरक्षा का बहुत
अधिक ख्याल था तो मैं यह पूछ सकती हूँ कि स्वयं तुम्हें किसी रावण का भय नहीं है क्या? क्या वह
तुम्हारी अस्मत, आबरू नहीं लूट सकता? मेरे दोस्त, लूट सकता है और सच बात तो यह है कि
लूटता भी है, लेकिन तुम मक्कारी और फरेब से उसे अपनी विजय और हिम्मत के खाते में बढ़ा लेते
हो और हम असहाय से तुम्हारे पुरूषत्व पर ईष्र्या करते रह जाती हैं क्योंकि लिखने पढ़ने वाले धर्मराज
तुम्हीं हो न।
मेरे हमदम तुम यह मत समझना कि मैं रावण को पहचानने में भूल कर गई। मैं रावण को आज
भली भांति पहचान गई हूँ। दरअसल यह रावण बुरा नहीं है। यह तो स्वाभिमानी है जो सत्य रूपी
शिव, जो सुंदर अर्थात कल्याणकारी भी है, के सम्मुख अपना मस्तक अपने ही हाथों से काट सकने
की क्षमता रखता है। “विवेकशून्य” तो तब होता है जब यह नकली मुखौटे लगाकर दशग्रीव होने का
ढोल पीटता है।
आज मैं इसके साथ इसलिए जा रही हूँ कि जिससे इसकी कमजोरियों को भली भांति आंक
कर “दशग्रीव” का हनन कर सकूँ। राम, तुम घबराना नहीं, मैं रणक्षेत्र में उन्नीस नहीं पड़ूंगी। इस युग
में पितृकुल में मेरी शिक्षा-दीक्षा पूर्णतः कुंवरों के समान ही करायी गई है। अतः तुमको कष्ट करने की
जरूरत नहीं है। यह मेरी अपनी लड़ाई है। इसे मैं अपने ढंग से लड़ूंगी। हाँ तुम्हारे विश्वास और स्नेह
का कवच मुझे मिला तो सचमुच ही यह लड़ाई अत्यंत सरल हो जायेगी।
अंत में इतना और कहूंगी कि यह हमारी ही भूलों का परिणाम है कि इस दशग्रीव का आज तक खात्मा
नहीं हो पाया। कारण कि हम सदैव एक दूसरे की दशग्रीव पर चोट करते रहे और इस मृगमरिचिका
में रहे कि दुष्ट तो मर ही रहा है, पर तुम्हीं देखो, यह वास्तव में मरा नहीं न? फिर? दरअसल
अपने-अपने “दशग्रीव” को हमें अपनी-अपनी दशन्द्रियों के बाणों से एक साथ ही बींधना पड़ेगा, तभी
इसका अंत होगा।
आशा है तुम थोड़े कहे को बहुत समझोगे और पत्र पढ़ते ही मन शिला पर बाणों को  धारदार
करने के लिए मेरी तरह जुट जाओगे।
इसी आशा में,
“कलयुग की सीता“
उर्फ सबला
सीता ने इतना लिखने के बाद पत्र को मुख्य दरवाजे से चिपकाया और फिर वह बड़े ही उन्मुक्त और
सहज भाव से लक्ष्मण रेखा को एक सधे हुए जिम्नास्ट की भांति फलांग कर बाहर आ गई।
-नलिन पाण्डे “तारकेश”