Sunday, 20 July 2014

कल्पना /संघर्ष =हक़ीक़त




जिंदगी के जिस दायरे से मैंने संघर्ष प्रारम्भ किया था वह न तो बहुत खुला हुआ सा उच्च वर्ग था न ही बंद घुटन सा माहोल लिए निचला वर्ग। मैं मध्यम वर्ग के भी दो ग्रेड समझता हूँ ,जिसमें सेकंड ग्रेड से मैं सम्बंधित हूँ। प्रथम ग्रेड वाले फिर भी उतने बिखरे नहीं हैं हर ओर से जहाँ तक या जिस स्थिति तक हम सेकंड ग्रेड वाले। अपने वर्ग वालों की तरह मेरे दिल में भी आकांक्षा थी ऊपर बढ़ने की और यही से शायद मेरी अनकही,असम्रझी परेशानियों का एक अंधड़ शुरू हुआ जो इन्तजार में था एक बरसात का जिसमें स्वप्नों की धूल हकीकत हो कर बैठ जाए। 
लेकिन पिछले पांच बरसों में क्या बरसात नहीं हुई,हुई पर मेरे घर-आँगन में नहीं।  मेरा घर अरे,मैं यह क्या कह गया। वो मेरा घर नहीं वह तो सरकारी घर था जिसमें हम तब तक रहे जब तक बाबूजी की नौकरी रही। फिर शहर से दूर एक बस्ती में सस्ते किराये में रहने लगे। आप कह रहे हैं मेरे बगल वाले शर्मा जी ने तो दो साल रिटायर होने के बाद तक भी वह घर नहीं छोड़ा,तो भाई मेरे में इतना ही कहूँगा कि वे ऊँची पहुँच वाले हैं,उन्होंने घर छोड़ दिया यही गनीमत है। 
बाबूजी स्वाभिमानी व्यक्ति हैं और स्वाभिमानी व्यक्ति के साथ रूखापन भी मौजूद होता है। अगर बाबूजी जी-हजूरी से अपने अधिकारीयों को खुश रखते तो शायद मुझे कई साल यूँ भटकना न पड़ता। या मैं भटकता भी तो बाबूजी ही कुछ ऊँची हैसियत रख कर तो रिटायर होते ही। क्योंकि या तो आदमी को मक्खनबाजी आनी चाहिए या फिर पास में फालतू का पैसा हो और इन दोनों का ही अभाव आदमी को अगर अंदर ही अंदर घुटने को मजबूर कर दे तो क्या बड़ी बात है। 



आज अधिकारी के आगे कुत्ते की तरह पूँछ हिलाना जीवन का एक अनिवार्य अंग है जानते हुए भी उन्होंने मुझे कई वर्ष स्वाभिमानी और ईमानदारी की सीख देने में गुजारे और अगर उसका चौथांश भी चमचों के गुण ग्रहण करने की मिसाल देने में बिताते तो मैं भी आज कुछ ऊँची पोस्ट पर होता। मगर नहीं,हद है इतना खोकर भी तथा आसपास के माहौल को जानकर भी वो अपनी जिद पर अड़े थे। आज अगर मैं कुंठाग्रस्त,तनावग्रस्त हूँ तो उनकी जिद की टेढ़ी पूँछ के कारण ही।
रोजगार दफ्तर की लम्बी कतारें देख कर ही मैं आह भरता था,जानता था कि ये भी वो ही नाम भेजेंगे जो ऊँचे पव्वों(पहुँच) के माध्यम से आएंगे। हर तरफ इंटरव्यू का ढकोसला जो महज ५-६ अधिकारियोँ  बीच का गुब्बारा है,जो उन सभी द्वारा श्रेष्ठता के अनुरूप क्रमशः सबसे बड़ी,छोटी फूँकों द्वारा भरा जाता है। 


नींद भी कितनी अच्छी होती है  आप आराम से रंगीन सपनों में खो तो सकते हैं। मगर नींद भी तो तभी आती है जब पेट भरा हो और करवटों में भी मेरी तरह किसी ने अगर सपने देखे हैं तो वे रेगिस्तान में पानी के भ्रम की तरह टूटे हैं। 
हाँ,तो मैं अपनी बात आपको बता रहा था जरा भटक गया था बात से। यूँ तो हर पल,हर घडी भटका हूँ मगर ये आपको हकीकत नहीं लगेगी। ख़ैर चलिये,आगे बढ़ाता हूँ अपनी राम-कहानी। जब बाबूजी को रिटायर होने के बाद ही अपनी स्थिति ज्ञांत हुई तो वे टूटन महसूस करने लगे थे और अपने मित्र से आखिरकार उन्हें मेरे लिए कहना ही पड़ा।मित्र आश्चर्य में थे पर साथ ही न जाने कैसे दयालु हो गए और अपनी फैक्टरी में अस्थयी पद पर नियुक्त कर दिया। ये जरूर है की तब से मैंने अपने घर को कन्धों पर संभाल कर रखने का प्रयत्न किया है। आज मैं हक़ीक़त समझ सका हूँ कि राजा का बेटा ही राजा हो सकता है अन्य कोई नहीं। अंत में एक शेर,बस उसकी भी एक ही पंक्ति याद है ,शेर कुछ यूँ है.……… 
"खुशबू आ नहीं सकती कागज के फूलों से" 

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