Friday, 4 July 2014

ग़ज़ल -44 खाते हैं चांदी की चम्मच से


खाते जो चम्मचों से चांदी की क्या ठसक कहिए।
पालते गद्दारों को कौन भला देश-सेवक कहिए।।

जो सबके लिए अंधेरों से दुआ मांगते दिखे।  
उजालों को तो ऐसे आप काले,अराजक कहिए।।

बहारों के मौसम जो बेवजह चहकना छोड़ें।
परिंदों को तो हर हाल ऐसे बस मिथक कहिये।।

आँखों में बांध कर पट्टी जो चलते रहे।
बढ़ते कदम उन्हें क्या ख़ाक उत्पादक कहिये।

दरख़्त में बैठ जो जड़ काटने में मशगूल हैं।
उसके आगे तो रहमान भी निरथॆक कहिये।।

जिस्म में फूंकता है दिन-रात जो जान हम सबके ।
"उसे तो "उस्ताद" आप अपना एक नियामक कहिये।।

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