Monday, 16 June 2014

ग़ज़ल -41




















ये जाने कैसी अज़ब दिल्लगी अपनी है।
बेवफ़ा के आने की उम्मीद अपनी है।।

बस मान जाए वो किसी भी तरह हमसे।
रब से अब तो बस मन्नत ये अपनी है।।

अगर आए तो जतायेगा वो अहसान अपना।
क्या करें सुनना मज़बूरी आंखिर अपनी है।।

वो नरम मुलायम से पाक-दस्त हुजूर के।
चूम आँखों लगाते किस्मत ये अपनी है।।

रास्ता जो भटक जाए कहीं भी कोई शागिर्द अगर।
मिल जायेगी मंजिल उसे नज़रे "उस्ताद" अपनी है।। 

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