Saturday, 7 June 2014

ग़ज़ल 21






















आईने का इतना भी ना हुजूर आसरा कीजिए।
इनायत कर कभी हमारी ओर भी चेहरा कीजिए।।

हर तरफ बिखरा है बस एक उसका ही नूर।
आँखों को मगर बंद ना आप करा कीजिए।। 

नफ़रत,जंग,आतंक मेरी तौबा-तौबा। 
हुजूर खुदा का कुछ तो खौफ जरा कीजिए।। 

खुदा की बंदगी करने वालों जरा तो खौफ खाओ।
गैर की नहीं तबीयत* पर अपने गौर गहरा कीजिए।
*आचरण

माना भक्तों की फेहरिस्त लम्बी है तेरी।
फिर भला हमसे ही क्यों आप पैंतरा कीजिए।।

मुहब्बत, एतबार जरूरत है आज की बेहिसाब।
"उस्ताद"इस पर अमले-नजर सदा ही खरा कीजिए।। 

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