Sunday 1 June 2014

ग़ज़ल-18















मेरी ग़ज़ल के तार, चिटक  गए हैं।
क्या गाऊँ यार ,सुर बहक गए हैं।।

नगमे थे जो गाते,कभी बार-बार।
मायने आज उसके ही खटक गए हैं।।

सींचा जो खेत लहू से,फसलों के लिए।
सारी रकम तो जमींदार झटक गए हैं।।

जिस रोशनी के लिए लड़े थे ताउम्र हम।
आज लूटेरे ही वो बन दीपक गए हैं।।

चमन में फूल जो बोए बहार के वास्ते।
वही शोलों को भड़का सारे खिसक गए हैं।।

जन्नत से हंसी बना रहे थे जिसे हम।
हालात वहीं आज हो अराजक गए हैं।।

शोख़ नज़रों ने जो देखा उसके सुकून को।
लो"उस्ताद" तो और भी हो बेझिझक गए हैं।।


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