Tuesday, 3 October 2023

598: ग़ज़ल: भूकंप

मेरी दुआ-सलाम से भी अब वो कतरा रहा।
कतरा-कतरा इस तरह वो मुझे तरसा रहा।।

यूँ तो वायदे किए थे साथ निभाने के उसने मुझसे।
जाने किस बात पर बहाने बना अब है बहला रहा।।

वक्त भी गजब मौज लेता है जब तारे गर्दिश में हों।
जख्म पुराना तो भरा नहीं नया जरूर मिलता रहा।।

सुकून की तलाश में भटकते हो खानाबदोश से क्यों।
देखते ही नहीं झांक कर तहे-दिल वो जो बसता रहा।।

भूकंप के झटके तो आएंगे,पर बाज न आते नामाकूलों।
आंखिर कब से तेरे गुनाहों को हर दिन वो दिखला रहा।।

हवाओं का रुख था जिधर,उधर कश्ती कभी हांकी नहीं। अनजानी मंजिल फिर भी"उस्ताद"इबारतें नई गढ़ता रहा।

नलिनतारकेश@उस्ताद

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