Sunday, 18 December 2022

490: ग़ज़ल: मौज बनी रहती है

नये जमाने की हवा बहुत शातिर हो चली है।
ले अपनी गिरफ्त में हम सबको डुबो रही है।। 

मेकअप किए सारे सामान बिक रहे अब तो बाजार में।
कहाँ बात असली-नकली की समझ हमें आ सकी है।।

कभी तो अपने हाथों को भी जुंबिश दे दिया कीजिए।
रोज थाली सजी-सजाई  दस्तरख्वान मिलती नहीं है।।

दो कदम गुनगुनाते खिरामां-ख़िरामां भी चलिए हुजूर।
देखिए तो कुदरत भी किस कदर ख़ैर-म़क्दम* करती है।।*स्वागत 

अता की है बस इसलिए थोड़ी-बहुत इल्म की खुरचन।
उंगलियाँ उठें तो मौज उसकी "उस्ताद" बनी रहती है।।

नलिनतारकेश@उस्ताद

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