Monday, 12 December 2022

484: ग़ज़ल लब खोलें तो मुश्किल

दर्द को चुपचाप सहने से मसला कोई सुलझता नहीं।
दर्द तो दर्द है यार ये जमाने से कभी भी छुपता नहीं।।

नए जमाने का आफताब* अब तो शर्मोगैरत में डूबो रहा है।*सूर्य 
सफर को अकीदत* के हमारे तार-तार करने से बाज आता नहीं।।*श्रद्धा

ये किन चांद-तारों पर जा झंडे गाड़ने की बात कर रहे हो तुम।
अपनी जमीं के मसाइलों* का ही हमसे जब हल निकलता नहीं।*मुश्किलें

कहाँ तो मुतमईन* था जमाना की जमाने की फिजा बदलेगी।*निश्चिन्त 
मगर यहाँ तो दूर-दूर तक बदलता मुस्तकबिल* दिखता नहीं।।* भविष्य 

जख्म जब अपने ही दें तो कोई क्या करें "उस्ताद" कहो तुम।
लब खोलें तो मुश्किल और सिलें तो चैन जरा भी मिलता नहीं।।

नलिनतारकेश @उस्ताद

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