Friday, 9 December 2022

ग़ज़ल 483: नए जमाने का इश्क

दिल की किताब अब चेहरे से पढ़ी जाती नहीं है।
उम्र गुजर जाए तहे जिल्द उसमें इतनी चढ़ी है।।

हर टूटते दिल की आवाज में अजब खामोशी मढी है।
कम कहने को कानों में देखो सबके सांकल* लगी है।।*चिटकनी 

दर्द निगाहों से बहना भी चाहे तो भला बहे कैसे।
आंखों से कजरे की चमक जो धुल के मिटती है।।

सुनहरे ख्वाबों की तामील को जमीं तो पुख्ता चाहिए।
वर्ना बिना रगड़े कहाँ हिना भी खिलखिला सकती है।।

नए जमाने का इश्क "उस्ताद" हमारे पल्ले तो पड़ता नहीं। प्यार की एक पेंग भरने से पहले जिसकी डोर चिटकती है।।

नलिनतारकेश @उस्ताद

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