Tuesday, 21 September 2021

395: गजल- दुनिया कहाँ समझ पाया हूँ

ये दुनिया कहाँ अब तलक समझ मैं पाया हूँ।
अटक तभी तो ना,हां की मंझधार जाता हूँ।।

भूलभुल्लिया से हैं रास्ते यहाँ सब तरफ देखिए।
बाहर निकलते भी दामन कहीं फंसा लेता हूँ।।

हर तरफ चकाचौंध रंग-बिरंगी अजब-गजब है यारब।
ख्वाबों के बिखरे कांच जब-जब टकटकी लगाता हूँ।।

मशक्कत कितनी करी,हर बार बहानों की फौज से। 
मगर है जन्नत यहीं,कहाँ इसके सुबूत जुटा पाया हूँ।।

सिवा तन्हाई के कौन सी शय देती है सुकून कहो तो।
पूछता हूँ "उस्ताद" से मगर हर बार खामोश पाता हूँ।।

@नलिनतारकेश

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