Wednesday, 21 July 2021

361:गजल: ख़ामख्वाह में

बस चल रही है तो चल रही जिंदगी ख़ामख्वाह में।
वरना तुम ही कहो क्या खाक बची ख़ामख्वाह में।।

हाथ मिलाना ही है दूभर बात करना तो छोड़ दीजिए।
खैरख्वाह बनने का शौक है बस खाली ख़ामख्वाह में।।

अपना वजूद है ही कितना कहो तो इस कायनात में।
फिर भी छोड़ते हैं कहाँ हम तेरी-मेरी ख़ामख्वाह में।।

कभी बारिश,कभी जाड़ा, कभी कड़ी धूप तो रहेगी। छूटती नहीं आदत मगर ये कोसने की ख़ामख्वाह में।।

हाथों से छूटती नहीं एकन्नी बगैर मोलभाव के।
नवाबों सी जताते हैं यूँ रंगबाजी ख़ामख्वाह में।।

जिन्दगी के मेले में खुद ही गुम हो गए देखो हम कहीं।
ढूंढते फिरते हैं मगर कैफ़ियत* अपनी ख़ामख्वाह में।।
*विवरण

महकता कस्तूरी सा वो तो है अपने ही भीतर कहीं पर।
लो भटक रहे "उस्ताद" जाने किस गली ख़ामख्वाह में।।

@नलिनतारकेश 

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