Friday, 7 December 2018

गजल-45 हर रोज दिले-आईने में

हर रोज दिले-आईने में खुद को देखता है।
यूं ही तो नहीं हुजूर वो हर वक्त महकता है।।

सुरूर रग-रग में जब उसका गहरे उतरता है।
खुदाई-रजा* वो सदा इत्तेफाक** बरतता है।।
*ईश्वरीय विधान   **अनुरूपता

अहम को मिटा दे या फैला दे कायनात तक।
आदमियत को तभी आदमी असल समझता है।।

राजे-अबद* बहुत आसां है निभाना उसके लिए।*अमरता
मसावात*,खुलूस**,ईमां को जो साथ रखता है।। *समानता **प्रेम

इब्तिदा है ना ही इंतिहा है उसके बेशुमार जलवों की।
बमुश्किल उसे कोई नियामत* से उसकी जानता है।।*कृपा

कठपुतली की तरह नचाता है वो हम सभी  को।
यूं ही नहीं उसे हर कोई "उस्ताद" कहता है।।

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