Wednesday, 19 September 2018

गजल-61 कान में धीरे से हवा सुगबुगा रही है

कान में धीरे जो हवा सुगबुगा जा रही है।
ये लगता है जिंदगी कुछ करीब ला रही है।।

वो चिलमन कहां अब जिससे झांकते थे हुजूर।
देख हाल जनाब का खुद को शर्म आ रही है।।

बहुत मुद्दत हो गई उनसे मिले हुए हमें। अफसोस वो हमारी जान अटका रही है।।

मिलते हैं लोग मगर एक दूरी के साथ।
खुदा ये रस्म अजब निभाई जा रही है।।

जाने कैसे ये दरख्त लगा रहे हैं यार हम।
बागों में चहकने से चिड़ियाएं कतरा रही हैं।।

कुछ तो कहो"उस्ताद"बड़े पशोपेश हैं सब।
आंखिर जमाने की पतरी* क्या बता रही है।।
*जन्मपत्रिका

@नलिन #उस्ताद

No comments:

Post a Comment