Wednesday, 5 August 2015

337 - आलोक में हे नाथ अपने



आलोक  में हे नाथ अपने,हमको शरण अब दीजिये 
तमसाच्छादित इस नरक से,शीघ्र दूर अब कीजिये।
हमने ही हाथ से खुद ही,पट उर के हैं बंद कर लिए   
 बल,शील,बुद्धि दे हमें आप,थोड़ी मदद तो कीजिए। 
बुद्धि-लाघव जगत के व्यापार का,है कहाँ कुछ भी पता 
इस लिए जरा मतिमूढ़ पर,वरद-हस्त अपना कीजिए।
जन्म-जन्मों से श्वासोच्छवास का,सिलसिला ही चल रहा 
कभी मुरली की टेर से,राधा सा मोहित हमें कर लीजिये।
मधु-मिलन की हो हर चाह पूरी,स्वप्न मैंने जो संजोयी  
काल-ग्रह गणित की चाल ऐसी,अनुकूल श्रीहरि कीजिए।
खिलता रहे जग-पंक में सदा,निर्मल-सरल रूप में 
नाथ ऐसी दिव्य दृष्टि,अपने "नलिन" पर कीजिए।     

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