Sunday, 19 October 2014

244 - प्रकृति पुरुष की जुगलबंदी

   पुरुष



 चांट,स्याही पर थिरकती अंगुलियाँ 
कभी मंद,कभी तीव्र ख़म देती अंगुलियाँ।
अदभुत रस छलकाती ये  उत्तर जातीं 
ह्रदय घट में बहुत चुपचाप मदमाती। 
सप्त स्वर ओंकार लेते हौले -हौले 
सधे सुर बहुत कह जाते हौले -हौले। 
रसप्रवाह हुआ अमिट शांति परमानन्द का 
उत्ताल तरंगों की तरह प्रयास आकाश छूने का। 


प्रकृति 
  
                          











किलकारी बांसुरी ने भरी मृदुल होंठ से 
कर दिया जाग्रत सप्त-चक्र मूलाधार से। 
देह,मन,बुद्धि कहाँ रहीं फिर बस में 
घुंघरू बाँध नाच उठी अपनी मौंज में।
सुर सरिता मन्दाकिनी सी पुनीत बह रही 
हिम शिखर नहीं स्व सहस्त्रार स्रोत से ही। 
सगुन-निर्गुण लय कथा ये रसपान की 
जुगलबंदी अदभुत बड़ी प्रकृति पुरुष की। 

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