Sunday, 12 October 2014

241 - दो रंग (लघुकथा)



पहला :
बंधू जी साइकिल से जा रहे हैं कि एक कारवाला बिना इंडिकेटर के तेज़ी से सामने मोड़ पर मुड़ जाता है। बंधू जी बुदबुदाते हैं "अभी मार दिया था पाजी ने। ये सभी कार,टैक्सी वाले  न जाने क्या समझते हैं अपने आप को। सड़क में भी कायदे से पेश नहीं आ सकते जैसे इनके बाप की सड़क हो।और हाथ या इंडिकेटर तो घिस जाएगा अगर दिखा दें तो।"

दूसरा :

बंधू जी कार में बैठे हैं। हॉर्न बजाते हैं मगर साइकिल वाला बीचों-बीच चलता ही जा रहा है। बंधू जी का मन तो करता है पकड़ गिरेबान लगाऊँ दो हाथ की भूल जाए साइकिल चलना भी। अभी हल्का सा भी छू भर जाए गाडी 
तो जनाब लुढ़कियां खाते दिखेंगे सड़क पर लेकिन फिर भी चार पहिये वालों से आगे बढ़ना चाहते हैं। 

No comments:

Post a Comment