Saturday, 25 October 2014

248 - कृपा-प्रसादी

यूँ मुझे अभी तो लगता यही है
कि मेरे हाथ में कुछ भी नहीं है।

पर अगर किंचित भी  है कहीं
कर्म की कुंजी मेरे पास भी
और बदल सकता हूँ मैं रास्ता।

तो बस यही है निवेदन मेरा
देना मुझे शक्ति और भरोसा।

कि कभी गलती से भी न
अंहकार जरा सा पाल लूँ।

जो भी करूँ, एक तो बस
अपने को तेरे लायक बना सकूँ।

दूसरा यही कि कुछ  भी करूँ
उसे कृपा-प्रसादी तेरी मान सकूँ। 

Thursday, 23 October 2014

247 - प्रकाश-उत्सव



    

प्रकाश-उत्सव है बड़ा ही अभिन्न अंग हमारा
उत्साह-उल्लास बन दौड़ता धमिनियों में सारा।

वस्तुतः हम सभी तो हैं प्रकाश के ही पुत्र
प्रकाशस्रोत से ऐसे जुड़े जैसे मणि-सूत्र।

फिर भला हम क्यों व्याकुल, विकल
संत्रस्त से अपनी मूल चेतना रहे भूल।

गहन,तमस आच्छादित रात्रि  है भला कहाँ
दसों-दिशा आलोकित स्वयंप्रभा बस है यहाँ।

हम तो हैं सदा अजर, अमर प्रकाश पुंज
झूमते-विचरते श्रीहरि निकेतन गली कुंज।

Monday, 20 October 2014

245 - जय-जय-जय गुरुदेव तुम्हारी






ये सहज अदा तुम्हारी
सारी आस हमारी।
रूप,रंग,खुशबू में बसी
क्या खूब तेरी ये राशि।
हर तरफ जलवों का फन
फैला अकूत मनों-मन।
प्यार के बस एक बोल पर
लूटा देता सर्वस्व हम पर।
फिर भी तेरी सुध कहाँ आती
स्वार्थवश बस जिव्हा बुलाती।
पर माफ़ कर त्रुटि हमारी
झट खेता नाव हमारी।
जय-जय-जय गुरुदेव तुम्हारी
बार-बार चरनन बलिहारी। 

Sunday, 19 October 2014

244 - प्रकृति पुरुष की जुगलबंदी

   पुरुष



 चांट,स्याही पर थिरकती अंगुलियाँ 
कभी मंद,कभी तीव्र ख़म देती अंगुलियाँ।
अदभुत रस छलकाती ये  उत्तर जातीं 
ह्रदय घट में बहुत चुपचाप मदमाती। 
सप्त स्वर ओंकार लेते हौले -हौले 
सधे सुर बहुत कह जाते हौले -हौले। 
रसप्रवाह हुआ अमिट शांति परमानन्द का 
उत्ताल तरंगों की तरह प्रयास आकाश छूने का। 


प्रकृति 
  
                          











किलकारी बांसुरी ने भरी मृदुल होंठ से 
कर दिया जाग्रत सप्त-चक्र मूलाधार से। 
देह,मन,बुद्धि कहाँ रहीं फिर बस में 
घुंघरू बाँध नाच उठी अपनी मौंज में।
सुर सरिता मन्दाकिनी सी पुनीत बह रही 
हिम शिखर नहीं स्व सहस्त्रार स्रोत से ही। 
सगुन-निर्गुण लय कथा ये रसपान की 
जुगलबंदी अदभुत बड़ी प्रकृति पुरुष की। 

Wednesday, 15 October 2014

243 -  गुरुदेव श्री नख चरण तुम्हारे 

गुरुदेव श्री नख चरण तुम्हारे
कर देते निर्मल नयन हमारे।

तभी शीश धर चरण तुम्हारे
हम आते हैं हाथ पसारे।

पड़ी बिवाई पाँव तुम्हारे
दौड़-दौड़ जो भाग संवारे।

हम भी जाने निष्ठुर कितने
हर छन तुम्हें आवाज लगाते।

पर बजरंगी भोले मेरे
तुम भी कब हार हो माने।

सारे दुष्कर्म भुला हमारे
आ जाते हो हमें बचाने। 

Tuesday, 14 October 2014

242 - हर प्रश्नचिह्न मिटा दिया



होठों को जुम्बिश देकर तुमने
नाम मेरा जो पुकार लिया
मुझ प्यासे पथिक को तुमने
मरुथल में अमृत पिला दिया।

मैं क्या जनता?नाम तुम्हारा
जबकि खुद को ही नहीं पहचानता
तुमने बेवजह ही लेकिन मुझको
कृपापात्र अपना बना लिया।

जीवन में काली रातें आयीं
एक नहीं कई बार घनी
पर तुमने सदा रवि बन के
तम से मुझे उबार लिया।

क्या कहूँ?कैसे कहूँ?कितना कहूँ?
हर बार सोच-सोच थक जाता हूँ
पर तुमने अब बना के अपना
हर प्रश्नचिह्न मिटा दिया।  

कुम्भ महापर्व

























कुम्भ महापर्व

Sunday, 12 October 2014

241 - दो रंग (लघुकथा)



पहला :
बंधू जी साइकिल से जा रहे हैं कि एक कारवाला बिना इंडिकेटर के तेज़ी से सामने मोड़ पर मुड़ जाता है। बंधू जी बुदबुदाते हैं "अभी मार दिया था पाजी ने। ये सभी कार,टैक्सी वाले  न जाने क्या समझते हैं अपने आप को। सड़क में भी कायदे से पेश नहीं आ सकते जैसे इनके बाप की सड़क हो।और हाथ या इंडिकेटर तो घिस जाएगा अगर दिखा दें तो।"

दूसरा :

बंधू जी कार में बैठे हैं। हॉर्न बजाते हैं मगर साइकिल वाला बीचों-बीच चलता ही जा रहा है। बंधू जी का मन तो करता है पकड़ गिरेबान लगाऊँ दो हाथ की भूल जाए साइकिल चलना भी। अभी हल्का सा भी छू भर जाए गाडी 
तो जनाब लुढ़कियां खाते दिखेंगे सड़क पर लेकिन फिर भी चार पहिये वालों से आगे बढ़ना चाहते हैं। 

240 - शालीनता (लघुकथा)




बन्धुजी (फल वाले से): ये केले कैसे दे रहे हो ?
फल वाला (भवें सिकोड़ता हुआ): 50  रुपए दर्जन,अभी बताया तो। 
बन्धुजी (अनुनय सा करते हुए ):अरे हमको नहीं किसी और को बताया होगा,भैय्या। 
फल वाला (सहजता से ):ठीक है कितना दे दें ?
बन्धुजी :30 लगाओ तो दे दो दर्जन भर। 
फल वाला (शालीनता से):सुनो,ऐसा है ये कश्मीरी डेलेसियस सेब केले से ज्यादा सेहतमंद होंगे तुम्हारे लिए। कहो तो 20 रुपये के किलो भर न पकड़ा दूँ तुम्हे ?

Thursday, 9 October 2014

239- लेक्चर (लघुकथा )



बंधू जी पूजा की सामग्री लेने गए थे। दुकानदार से पंचमेवा देने को कहा और उसमे एक आद काजू भी डाल देने का अनुरोध किया। इस पर दुकानदार ने उन्हें बड़े प्रेम से समझाते हुए कहा,बंधू जी काजू आपको कोई हेल्थ बनाने को तो चाहिए नहीं। वैसे भी एक आद काजू से आपकी हेल्थ बनने से रही। हाँ उलटे कभी न चखे होने से जैसा आपके चेहरे से लग रहा है,अपच ही संभव है। फिर देखिये यह सामग्री तो भगवान के लिए है और उनके लिए काजू हो न हो क्या फर्क पड़ता है। वह तो आपकी हालत जानते ही हैं कि आप  ……।
बंधू जी अधिक न सुन पाये। चुपचाप नमस्कार की मुद्रा में उसे हाथ जोड़ आगे बढ़ने में ही अपनी भलाई समझ गए। 

Wednesday, 8 October 2014

238 - मेरी आँखों में तेरा रूप रहे।




मेरी आँखों में तेरा रूप रहे।
मेरे  होठों में तेरा नाम रहे।
मेरे उर में तेरा ध्यान  रहे।
मेरे कानों में तेरा इकराम रहे।
मेरे कर्मों में तेरा कार्य रहे।
मेरे हाथों से तेरा श्रृंगार रहे।
मेरे पावों में तेरा मार्ग रहे।
हर तरह से तेरा भाव रहे।
जहाँ रहूँ बस तेरा ख्याल रहे।
काल जब आये तो आता रहे।
मेरा जीवन यूँ ही बस चलता रहे। 

Tuesday, 7 October 2014

237 - अमृत बरसा





अमृत बरसा धरा पर आज अनवरत
उजली-खिली,शरद पूर्णिमा की रात।

पायस में संचित निर्मल चन्द्र किरन
प्रातः करें फिर हम मिल  जलपान।

अर्जित हो जो अब ओज, बुद्धि, बल
आओ सजाएं उससे आने वाला कल।

नयी चेतना,नयी सोच का परचम लहरा
आंदोलित कर दें अब यह सम्पूर्ण धरा।

हम अनूठे सत,चित,परमानंद के लाल
हैं जुड़े उसी परम मनोहर अमृत-नाल। 

Monday, 6 October 2014

ग़ज़ल-60 दरदे पैमाना

दर्दे पैमाना पिलाते हैं मुस्कुरा के वो
कहते हैं मगर गुस्ताखी माफ़ हो।

मुहब्बत की है ये इंतिहा यारों
दर्दे दिल बढे पर लब सिला हो।

दर्दे सुकून को हम आये थे इस ओर
खबर किसे थी दर्द और बढ़ाते हो।

छलछला के गिरे पता चले तभी तो
पैमाने का पैमाना अब कहाँ भला हो।

ज्वार उठेगा मयखाने में "उस्ताद" जो
बह जाए साकी,शराब और सभी जो हो।

Saturday, 4 October 2014

235 - साईंमय हैं हम सभी



साईंमय हैं हम सभी
बस इसका आभास हो जाए।

बीच में जो पाली है
हमने खुद से
तेली की दीवार
वो ढह जाए।

बस फिर कहाँ है
दुःख,कष्ट,पीड़ा
हमारे जीवन जगत में।

सब तरफ तो है छाया
आनंद ही आनंद
मात्र परमानन्द।

जिसमें निमग्न हम
तिरते हैं हर छन सदा। 

Friday, 3 October 2014

235 - हर पल मैं हारुँ

हर पल मैं हारुँ जीवन में
हर छन बस तू ही जीते।

यही चाहता हूँ साईं तुझसे
और न इच्छा करुँ मैं मन में।

मेरा सोचा जो कुछ भी होगा
वो तो तीता-रीता होगा।

जो कुछ तू सोचे मेरे खातिर
वो ही सच्चा-मीठा होगा।

मैं चलूँगा खुद के बल से
तो थक जाऊँ कुछ ही पग में।

ले कर चले, हाथ पकड़ जो
सप्तलोक करुँ मैं सैर मजे में। 

Wednesday, 1 October 2014

234 - शक्ति रूपेण संस्थिता






233 - छूट (लघुकथा )



बंधू जी को पता चला कि आजकल फलां जगह कपड़ों पर 20 %की छूट चल रही है। बस क्या था गए और अपने लिए एक शर्ट ले आये जो 240 रुपये में मिल गयी। दूसरे दिन बंधू जी के मित्र भी देखा-देखी गये.साथ में बंधू जी को भी ले गए। वहां पहुँच कर बंधू जी सन्न,कारण था आज 25 % छूट  का बोर्ड जगमगा रहा था।  सो कसमसाए से वो अपने मित्र के भाग्य पर  ईर्ष्या करने लगे। लेकिन जब उनके मित्र ने वैसी ही शर्ट के दाम पूछे तो दोनों ही मित्र अवाक रह गए।  असल में छूट के बाद आज शर्ट के दाम थे 265 रूपये  मात्र।