Sunday 30 March 2014

केदार ये क्या किया !!

केदार ये क्या किया !!
क्यों खोल दिया तुमने
अपना तीसरा नेत्र
प्रलयंकारी, विध्वंसकारी
 अपना  तीक्ष्ण मारक नेत्र
देखो तो तुम खुद ही जरा 
अब कैसी मृतप्राय हो गयी है
 वसुंधरा  की "नलिन" देह
जो कभी मशहूर थी
सारे जगत में अपनी
अवर्णनीय सुषमा के लिए
जहाँ अनमोल थाती थी बहती
दूधिया,फेनल मन्दाकिनी की
वही  घावों से अनगिनत भरी
अपनी लिए विदीर्ण छाती
अब कैसा रुदन कर रही है
लोमहर्षक,वीभत्सकरी
हमारी रत्नगर्भा,बेचारी !!

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हमें मालूम है केदार
तुम सदा के स्तिथप्रज्ञ हो
दुःख सुख से परे
शांत,सहज,निर्विकार हो
और उसी क्रम में सदैव
बिना  रत्ती भर भेदभाव के
देते हो  फल हमारे कर्म के
पर इन सबसे परे भी तो
तुम सर्वप्रथम करुणा के जनक
भोले भंडारी,कृपानिधान हो
तो चलो जो हुआ सो हुआ
 ह्रदय पर  पत्थर रख कर
माना कि वो हमारा  कर्मदंड था
पर आशुतोष,अवढरदानी
तुमसे है एक विनती मेरी
जो हैं बचे आपदाग्रस्त प्राणी
उनकी सारी  ले लो तुम
अब सहृदय बन जिम्मेदारी
बस देखना गुरुवर यही
 अब ना रहे कोई याचक
त्रस्त,विपदाग्रस्त खाली।

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अंत में बार -बार 
बस एक अंतिम प्रार्थना 
कि उबार लो हमें हे नाथ !
देकर निर्मल मति का वरदान 
करो हमारी रावण मति का संहार 
जो अंहकार के मद में चूर्ण हो
 काटती  है वृक्ष की उसी डाल  को  
जिस पर खड़े गाती  है "विकास -गीत"को 

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