Wednesday, 31 July 2024

६६२: ग़ज़ल: जन्नत में आकर के हम

जन्नत में आकर के हम,इबादत ही करना भूल गए।
जिसके दम पर पहुंचे यहां,उसको ही यारा भूल गए।।

परदेस की गलियों में अनजानी,हम भटकते ही रहे।
खिलाड़ी बनने की खातिर,गूगल चलाना भूल गए।।

बरसात हुई है सुना तेरे शहर में,आज  झमाझम बड़ी।
अरसे से मगर हम यहां,सावन-भादों हैं क्या भूल गए।।

तस्वीर खिंचवाएंगे हरी-भरी वादियों में तेरे साथ में हम।
ये सोच सफर में निकले मगर तुझे ही बुलाना भूल गए।।

"उस्ताद" हम,तुम सभी,उसके ही वजूद से रह रहे यहां।
था जो बड़ा मुद्दतों पुराना,वही अनुमोल रिश्ता भूल गए।।

नलिन "उस्ताद" 

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